31 जुलाई 2025 को विशेष NIA अदालत ने मालेगांव ब्लास्ट केस (Special Case No. 1 of 2009) के सातों आरोपियों को बरी कर दिया। 17 वर्षों तक चले इस मुकदमे के बाद अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष किसी भी आरोप को संदेह से परे साबित करने में विफल रहा। यह मात्र “बरी होने का निर्णय” नहीं है, बल्कि भारतीय जांच एजेंसियों की निष्पक्षता, पुलिस की कस्टोडियल हिंसा और हमारे न्यायिक तंत्र की धीमी गति पर गहरी चोट है।यह केस केवल आरोपियों की व्यक्तिगत त्रासदी नहीं, बल्कि भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली की संस्थागत विफलता का प्रतीक है।
31 जुलाई 2025 को विशेष NIA अदालत ने मालेगांव ब्लास्ट केस (Special Case No. 1 of 2009) के सातों आरोपियों को बरी कर दिया। 17 वर्षों तक चले इस मुकदमे के बाद अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष किसी भी आरोप को संदेह से परे साबित करने में विफल रहा। यह मात्र “बरी होने का निर्णय” नहीं है, बल्कि भारतीय जांच एजेंसियों की निष्पक्षता, पुलिस की कस्टोडियल हिंसा और हमारे न्यायिक तंत्र की धीमी गति पर गहरी चोट है।यह केस केवल आरोपियों की व्यक्तिगत त्रासदी नहीं, बल्कि भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली की संस्थागत विफलता का प्रतीक है।
- नार्को रिपोर्ट दबाना,
- FSL रिपोर्ट पेश न करना,
- गवाहों को प्रभावित करना,
राजनीतिक प्रभाव और गुटबाजी की आशंका:
- रमेश उपाध्याय और समीर कुलकर्णी के आरोप कि उनसे RSS, साध्वी प्रज्ञा, योगी आदित्यनाथ, श्रीश्री रविशंकर आदि के नाम लेने को कहा गया—गंभीर सवाल खड़े करते हैं।
- यह परिदृश्य दर्शाता है कि जांच निष्पक्ष आपराधिक प्रक्रिया न होकर राजनीतिक नैरेटिव बनाने का उपकरण बन गई थी।
- संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 यह गारंटी देते हैं कि सभी नागरिक समानता और स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किए जाएंगे। लेकिन यदि जांच राजनीतिक पूर्वाग्रह से ग्रसित हो तो यह गारंटी अर्थहीन हो जाती है।
मानवाधिकार उल्लंघन:
- आरोपियों के बयानों के अनुसार—
- दांत तोड़ना,
- निजी अंगों पर इलेक्ट्रिक शॉक,
- धार्मिक प्रतीकों और ग्रंथों का अपमान,
- पत्नी-बेटी को अपमानित करने और बलात्कार की धमकी,
- जबरन मांस खिलाना—
- ये सभी कार्य भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (Right to Life with Dignity) का खुला उल्लंघन हैं।
न्यायालय की दृष्टि:
(क) बॉम्बे हाईकोर्ट (2017)
- साध्वी प्रज्ञा को ज़मानत दी गई।
- कोर्ट ने माना कि आरोपों को सिद्ध करने योग्य पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं।
(ख) सर्वोच्च न्यायालय (2017)
- कर्नल पुरोहित को जमानत देते हुए कहा —
- “न्यायिक प्रक्रिया केवल अनंतकाल तक किसी को जेल में रखने का औजार नहीं हो सकती। अभियोजन को आरोप सिद्ध करने के लिए ठोस साक्ष्य प्रस्तुत करने होंगे।”
(ग) विशेष NIA न्यायालय (2025)
- Special Case No. 1/2009, Judgment dated 31.07.2025 में 7 आरोपियों को बरी कर दिया गया।
- न्यायालय ने कहा कि अभियोजन आरोप साबित करने में असफल रहा और संदेह का लाभ आरोपियों को दिया जाना आवश्यक है।
निर्दोष नागरिकों की क्षतिपूर्ति:
- 17 वर्ष तक निर्दोष व्यक्ति आतंकवादी होने का कलंक झेलते रहे। सामाजिक बहिष्कार, परिवार की प्रतिष्ठा का ह्रास, करियर का विनाश और मानसिक-शारीरिक यातना—इन सबकी भरपाई कौन करेगा?
- सुप्रीम कोर्ट ने Rudal Shah v. State of Bihar (1983 AIR 1086) और Nilabati Behera v. State of Orissa (1993 2 SCC 746) में कहा था कि “मुआवजा, संविधान के अनुच्छेद 21 के उल्लंघन का स्वाभाविक उपचार है।”
- आज आवश्यकता है कि भारत में “Wrongful Prosecution Compensation Law” लाया जाए, जैसा कि ब्रिटेन, अमेरिका और कनाडा में मौजूद है। यह कानून सुनिश्चित करे कि—
- निर्दोष साबित होने वाले व्यक्तियों को आर्थिक और सामाजिक पुनर्वास मिले।
- दोषपूर्ण जांच करने वाले अधिकारियों की व्यक्तिगत जवाबदेही तय हो।
राजनीतिक फायदे बनाम राष्ट्रीय नुकसान
- असली अपराधी छूट जाएंगे,
- निर्दोष बर्बाद होंगे,
- और जनता का न्यायपालिका व पुलिस पर विश्वास टूटेगा।
समाधान और सुझाव:
- स्वतंत्र जांच आयोग (Independent Investigative Commission) – ATS, NIA और CBI जैसी एजेंसियों को राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त कर, संसदीय निगरानी में लाया जाए।
- कस्टोडियल टॉर्चर विरोधी कानून – UNCAT की ratification और घरेलू कानून बनाकर पुलिस अत्याचार पर कठोर दंड तय किया जाए।
- मुआवज़ा कानून – Wrongful Prosecution Compensation Act लाकर निर्दोषों को पुनर्वास मिले।
- पुलिस अधिकारियों की जवाबदेही – दोषपूर्ण जांच करने वाले अधिकारियों की पेंशन व पदोन्नति रोकी जाए और आपराधिक कार्रवाई हो।
- फास्ट-ट्रैक कोर्ट – आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों में 2-3 वर्ष की अधिकतम समयसीमा तय की जाए।