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क्या न्यायपालिका भारत को भी संवैधानिक अराजकता की ओर ले जा रही है?

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हाल ही में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने Writ Petition (Civil) No. 1239 of 2023 के अंतर्गत तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के बीच विधायी प्रक्रिया को लेकर उत्पन्न गतिरोध पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इस विस्तृत 414 पृष्ठीय निर्णय में, न्यायालय ने विभिन्न संवैधानिक आयामों की व्याख्या की। किंतु पृष्ठ 142 पर न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला द्वारा लिखे गए निर्णय में एक ऐसा संदर्भ सामने आया है जिसने देश की संवैधानिक चेतना को झकझोर कर रख दिया है — और वह है पाकिस्तान के संविधान का उल्लेख।

पाकिस्तान के संविधान का संदर्भ: अनुच्छेद 75 और 105:
पैराग्राफ 164 में कहा गया है कि पाकिस्तान में राष्ट्रपति को जब कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है, तो उन्हें 10 दिन के भीतर या तो सहमति देनी होती है या संसद को पुनर्विचार हेतु वापस भेजना होता है। अगर विधेयक पुनः पारित हो जाए, तो राष्ट्रपति को उस पर अनिवार्य रूप से हस्ताक्षर करना होता है। यह तर्क भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 में राज्यपाल के अधिकारों की व्याख्या के संदर्भ में दिया गया है।

भारत और पाकिस्तान में मूलभूत अंतर: केवल कानून नहीं, मूल्य भी भिन्न हैं:
इस संदर्भ का प्रयोग न्यायिक रूप से भले ही "सहज तुलना" के रूप में किया गया हो, परंतु यह प्रश्न उठता है कि क्या भारत जैसे लोकतांत्रिक, संवैधानिक और न्याय आधारित गणराज्य को एक ऐसे असफल राष्ट्र के मॉडल से तुलना करनी चाहिए, जहाँ:
  • न्यायपालिका कार्यपालिका के अधीन मानी जाती है।
  • लोकतंत्र केवल नाममात्र है, वास्तविक सत्ता सेना व खुफिया एजेंसियों के हाथों में है।
  • मीडिया को नियंत्रित किया जाता है और बोलने की आज़ादी निष्क्रिय है।
  • आतंकवाद और धार्मिक कट्टरता प्रशासन में गहराई से समाहित है।
  • जहा राष्ट्रपति, प्रधानांत्री जैसे शीर्ष संवैधानिक पदों की कोई गरीमा ही नहीं है। 
क्या माननीय न्यायालय को यह ध्यान नहीं देना चाहिए था कि पाकिस्तान का संवैधानिक ढांचा तानाशाही और सैन्य-प्रभावित प्रशासन से ग्रसित है, जिसे भारत में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना स्वयं भारतीय लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों को कमज़ोर करता है?

भारतीय संवैधानिक ढांचे में अनुच्छेद 200 का उद्देश्य:
भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल को राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर तीन विकल्प दिए गए हैं:
  • सहमति देना,
  • राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना,
  • पुनर्विचार हेतु विधेयक को लौटाना।
परंतु महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि राज्यपाल को यह कार्य करना राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्यकारी रूप में करना होता है (अनुच्छेद 163)। सुप्रीम कोर्ट के ही निर्णय संशोधन बनाम पंजाब राज्य (2024) 1 SCC 384 में स्पष्ट किया गया है कि जब राज्यपाल किसी विधेयक को अस्वीकृत करते हैं, तो उन्हें पहले संविधान के प्रथम प्रावधान के अनुसार सदन को पुनर्विचार हेतु संदेश देना अनिवार्य होता है।

इस प्रकार, राज्यपाल का यह अधिकार निरंकुश या विवेकाधीन नहीं है, बल्कि संसदीय लोकतंत्र की मर्यादा में बंधा हुआ है।
संविधान सभा की बहसों में स्पष्ट कहा गया था कि राज्यपाल की भूमिका केवल "रबड़ स्टैम्प" न होकर, "विचारशील परंतु प्रतिबद्ध सलाहकार" की होनी चाहिए, जो मंत्रिपरिषद के साथ सामंजस्य में कार्य करे।

तर्कहीन और खतरनाक तुलना:
यह अशोभनीय है कि भारत जैसे सशक्त और स्वतंत्र राष्ट्र की संवैधानिक प्रक्रिया की तुलना पाकिस्तान जैसे विफल और सैन्य शासित राष्ट्र के ढांचे से किया जाए। यह न केवल भारतीय संघवाद और लोकतंत्र का अपमान है, बल्कि देश की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को भी आघात पहुंचाता है।

भारतीय संविधान स्वयं में पूर्ण, विस्तृत और सर्वश्रेष्ठ है। इसकी व्याख्या व विकास स्वदेशी दृष्टिकोण से होना चाहिए, न कि विदेशी असफल मॉडलों को आधार बनाकर। सुप्रीम कोर्ट का पाकिस्तान के संवैधानिक प्रावधानों का उदाहरण देना न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि यह लोकतांत्रिक चेतना और न्यायिक विवेक के लिए चिंताजनक संकेत भी है।

अगर यह प्रथा चल पड़ी, तो कल को क्या चीन, उत्तर कोरिया या सऊदी अरब के मॉडल से भी भारत के कानूनों की तुलना होगी? भारत का संविधान "We, the People" से शुरू होता है — और जनता की इच्छाएं पाकिस्तान से प्रेरित नहीं, बल्कि भारतीय मूल्यों से संचालित होती हैं।


✍️ लेखक: एडवोकेट कृष्णा बारस्कर
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संवैधानिक सीमाओं की पुनर्स्थापना: सुप्रीम कोर्ट बनाम कार्यपालिका?

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भारतीय संविधान का मूल ढांचा तीन स्तंभों – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – के बीच स्पष्ट शक्तियों के बंटवारे पर आधारित है। लेकिन हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने की समयसीमा निर्धारित करने वाला निर्णय उस संतुलन को प्रश्नांकित करता है, जो संविधान की आत्मा है।

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया एक ऐतिहासिक निर्णय — जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने की समयसीमा निर्धारित की गई — ने एक बार फिर देश में संवैधानिक संस्थाओं की सीमाओं और शक्तियों को लेकर विमर्श खड़ा कर दिया है। यह निर्णय, जहां एक ओर संघवाद और उत्तरदायित्व की भावना को सुदृढ़ करता है, वहीं दूसरी ओर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की आपत्ति के रूप में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच तनाव को भी उजागर करता है।

इस लेख के माध्यम से हम इस निर्णय की संवैधानिक व्याख्या, इसकी आवश्यकता, तथा उस पर उठे प्रतिरोध के संदर्भ में इसकी समीक्षा करेंगे।

1. राष्ट्रपति – केवल संवैधानिक प्रतीक नहीं, भारतीय संघ का शीर्ष प्रतिनिधि:

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 52 कहता है कि भारत का एक राष्ट्रपति होगा। अनुच्छेद 53 में स्पष्ट किया गया है कि भारत का सम्पूर्ण कार्यपालिका अधिकार राष्ट्रपति में निहित होगा। यह पद केवल एक ‘औपचारिक प्रमुख’ नहीं, बल्कि भारतीय गणराज्य की गरिमा और अखंडता का प्रतिनिधित्व करता है।

  • अनुच्छेद 74 राष्ट्रपति को यह शक्ति देता है कि वह मंत्रिपरिषद की सलाह स्वीकार करें या उसे पुनर्विचार के लिए लौटा सकते हैं।
  • अनुच्छेद 111 और अनुच्छेद 201 में विधेयकों पर राष्ट्रपति की भूमिका को परिभाषित किया गया है, किंतु किसी निश्चित समयसीमा का उल्लेख नहीं है।
  • सुप्रीम कोर्ट द्वारा समयसीमा निर्धारण करना संविधान में वर्णित मौन प्रावधानों की न्यायिक पुनर्लेखन की ओर इशारा करता है।

2. अनुच्छेद 142 का न्यायिक उपयोग – असीमित या सीमित?

  • अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को "पूर्ण न्याय" सुनिश्चित करने की शक्ति देता है। परंतु यह शक्ति अन्य संवैधानिक संस्थाओं की स्वतन्त्रता को बाधित करने के लिए नहीं है।
  • सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि राष्ट्रपति का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन है, संवैधानिक पद की स्वतंत्र गरिमा को कमजोर करता है।
  • भारत का राष्ट्रपति न्यायपालिका का अधीनस्थ नहीं है, और न ही उसे समयसीमा में बांधना अनुच्छेद 142 की मंशा से मेल खाता है।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस आर.वी. रमण ने भी कहा था कि अनुच्छेद 142 का प्रयोग "केवल तभी होना चाहिए जब अन्य संवैधानिक मार्ग विफल हो चुके हों।" यह ‘दंड देने का अधिकार’ नहीं, बल्कि ‘विधि की कमी पूरी करने का माध्यम’ है।


3. विधायिका-कार्यपालिका के बीच न्यायपालिका की घुसपैठ?

भारत के संविधान में शक्तियों का पृथक्करण (Doctrine of Separation of Powers) निहित है। इसका तात्पर्य है कि:
  • विधायिका कानून बनाएगी,
  • कार्यपालिका उसे क्रियान्वित करेगी,
  • और न्यायपालिका उसकी व्याख्या करेगी।

जब न्यायपालिका कार्यपालिका के क्षेत्र में नीति निर्धारण करने लगे, तो यह संविधान के मूल ढांचे के विपरीत है। राष्ट्रपति की भूमिका विधानसभा और संसद के संतुलन का आधार है। यदि उन पर निर्णय की समयसीमा थोप दी जाए, तो यह संविधान प्रदत्त विवेकाधिकार (Discretionary Power) का सीधा उल्लंघन है।


4. क्या राष्ट्रपति की गरिमा खतरे में है?

भारत के राष्ट्रपति न केवल एक संवैधानिक पद हैं, बल्कि राष्ट्रीय अखंडता, निष्पक्षता, और तटस्थता के प्रतीक हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से यह संदेश जाता है कि संवैधानिक प्रमुख को न्यायिक निर्देशों के अधीन माना जा सकता है, जो कि लोकतांत्रिक संतुलन को कमजोर कर सकता है।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का यह कथन कि "कोई संस्था संविधान से ऊपर नहीं है" पूरी तरह सत्य है, लेकिन साथ ही यह भी उतना ही सत्य है कि कोई संस्था दूसरी संस्था के अधिकारक्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकती।


5. संदर्भ और तुलनात्मक दृष्टि:
  • अमेरिका में राष्ट्रपति पर किसी कोर्ट द्वारा कोई समयसीमा नहीं लगाई जाती, चाहे बिल को वीटो करना हो या साइन करना हो।
  • यूनाइटेड किंगडम की संवैधानिक परंपराओं में भी राजा/रानी की भूमिका 'रॉयल एसेंट' तक सीमित है, लेकिन उन्हें कोई न्यायिक निर्देश नहीं दिया जाता।
  • इससे यह सिद्ध होता है कि संवैधानिक प्रमुखों को विधिक प्रक्रिया की मर्यादा में रहते हुए स्वायत्तता दी जाती है


राष्ट्रपति की गरिमा का संरक्षण आवश्यक है!

संविधान का सबसे गरिमामय पद — भारत का राष्ट्रपति — केवल हस्ताक्षरकर्ता नहीं, बल्कि संविधान की आत्मा और राष्ट्रीय प्रतीक हैं। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय उनकी विवेकाधिकार की शक्ति को सीमित करता है, और इससे संवैधानिक संतुलन में असंतुलन उत्पन्न हो सकता है।

लोकतंत्र केवल शक्तियों का बंटवारा नहीं, बल्कि आपसी सम्मान और सीमाओं का पालन भी है। न्यायपालिका को चाहिए कि वह संविधान की रक्षा करे, लेकिन संवैधानिक गरिमा को सीमित कर नहीं

कृष्णा बारस्कर (अधिवक्ता) बैतूल 

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