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से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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दक्षिण एशिया की शांति तलवार की धार पर — लाल किले के निकट धमाका क्षेत्रीय स्थिरता पर नया प्रश्नचिह्न

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दक्षिण एशिया इस समय एक बारीक तलवार की नोक पर खड़ा है। दिल्ली में लाल किले के पास हुआ
कायराना धमाका अब तक भारत सरकार द्वारा आतंकी कार्रवाई घोषित नहीं किया गया है। 
पुलवामा के बाद शुरू हुआ ऑपरेशन सिंदूर अभी जारी है—और सरकार पहले ही स्पष्ट कर चुकी है कि सीमा पार की सबसे छोटी आतंकवादी गतिविधि भी गंभीर प्रतिक्रिया को जन्म दे सकती है। ऐसे में पूरे क्षेत्र की शांति अब इस बात पर निर्भर है कि भारत इस हमले को किस श्रेणी में रखता है। यही फैसला आने वाले दिनों की कूटनीतिक और सुरक्षा दिशा तय करेगा।

परिचय — घटना और त्वरित तथ्य
10 नवंबर 2025 की शाम लगभग 6:50–7:00 बजे के बीच दिल्ली के ऐतिहासिक लाल-किले (Red Fort) के पास एक वाहन (रिपोर्टों में Hyundai i20 का उल्लेख) में जबरदस्त विस्फोट हुआ। इस विस्फोट में प्रारम्भिक रिपोर्टों के अनुसार 8–9 लोग मारे गए और कई घायल हुए; आसपास की कई गाड़ियाँ जल उठीं तथा क्षेत्र में भय-विक्षेप का माहौल बन गया। सुरक्षा एजेंसियाँ और बचाव-कर्मी तुरंत मौजूद रहे और इलाके में अलर्ट जारी कर दिया गया। 

सरकारी प्रतिक्रिया — क्या इसे आतंकी कार्रवाई माना गया?
घटना के तुरन्त बाद उच्चस्तरीय जांच-अधिकारियों और केंद्रीय नेताओं ने मामले की समीक्षा की। गृह मंत्री ने हर संभावना पर गौर करने की बात कही और कुछ रिपोर्टों के अनुसार प्राथमिकी में UAPA (Unlawful Activities (Prevention) Act) की धाराएँ भी जोड़ी जा चुकी हैं — यह संकेत है कि पुलिस-फोरेंसिक और खुफिया दोनों तहों पर आतंक-सम्भावना की जाँच चल रही है। परन्तु — और यह अहम है — सरकार ने (कम से कम सार्वजनिक तौर पर) तुरंत और स्पष्ट रूप से इसे ‘घोषित आतंकवादी कार्रवाई’ के रूप में नामित करने से परहेज़ किया; सूचित बयान अधिकतर जांच-परक और सतर्क-स्वरूप रहे।

संदर्भ: ऑपरेशन ‘सिंदूर’ और रणनीतिक समझ
इस घटना को समझने के लिए पिछले कुछ महीनों की सुरक्षाफ्रेमवर्क पर ध्यान देना जरूरी है। अप्रैल 2025 में पुलवामा-प्रकार की बड़ी घटना के बाद भारत ने सीमापार सक्रियता के खिलाफ ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसी प्रतिकारात्मक कार्रवाइयाँ शुरू कीं — जिनका उद्देश्य सीमा पार के आतंकवादी ठिकानों और नेटवर्क को भंग करना बताया गया। इस ऑपरेशन के प्रभाव व परिणामों को लेकर क्षेत्रीय तनाव पहले से ही संवेदनशील बना हुआ है। इसलिए दिल्ली-हैट्रिक में हुआ कोई भी धमाका न केवल आंतरिक सुरक्षा की विफलता का प्रश्‍न है, बल्कि यह उस रणनीतिक माहौल को भी प्रभावित कर सकता है जिसमें प्रतिकृति-कार्रवाई (escalatory response) और अंतर-राज्यीय प्रतिक्रियाएँ सम्भव हैं।

राजनीतिक-रणनीतिक निहितार्थ

  1. घोषणा-शक्ति का महत्व: किसी भी राज्य की प्रतिक्रिया-नीति में ‘घोषणा’ का राजनीतिक और रणनीतिक महत्व बहुत अधिक होता है। यदि दिल्ली इसे आतंकी हमले के रूप में औपचारिक रूप से घोषित करती है तो अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर कार्रवाई-विकल्प (कूटनीतिक, खुफिया-साझेदारी, सर्जिकल प्रतिआक्रमण आदि) पर दबाव बढ़ सकता है। यदि घोषणा टाली गयी या अस्पष्ट रखी गयी, तो विरोधी पक्ष के लिए समझने-समझाने का अवसर बनेगा — और अनिवार्य नहीं कि वह स्थिति को शांतिपूर्वक ही ग्रहण करे। 

  2. गलत-निर्धारण (Misattribution) का जोखिम: जल्दी में गलत निष्कर्ष निकालकर आरोप लगाना भी खतरनाक है — पर धीमी, अस्पष्ट प्रतिक्रिया भी उसी तरह परिदृश्य को उलझा सकती है जहाँ प्रतिकूल actor गलत-फहमी से तेज़ी से कदम उठाएँ। इसलिए पारदर्शिता, ठोस_forensics_, और सामूहिक खुफिया-साझेदारी (दोस्त देशों के साथ) आवश्यक हैं।

  3. अंदरूनी स्थिरता बनाम बाहरी कार्रवाई: ऑपरेशन-सिंदूर जैसे कदम पहले ही क्षेत्र में तनाव पैदा कर चुके हैं; ऐसे समय में भारत-सरकार की प्रतिक्रिया दो ध्रुवीय दबावों के बीच फँसती दिखती है — एक ओर आंतरिक जनता और राजनीतिक मांग कि ‘कठोर कार्रवाई’ हो, दूसरी ओर इंटेलिजेंस-रिस्क और युद्धविस्तार की आशंका। यह संतुलन बहुत नाजुक है और एक तर्कहीन बयान या तीव्र सैन्य कदम दक्षिण-एशिया की शांति को और पीछे धकेल सकता है।

न्यायिक-प्राकृतिक जाँच की तीव्रता आवश्यक
घटनास्थल-फोरेंसिक, विस्फोटक सामग्री का परख, वाहन-ट्रैजेक्टरी, सीसीटीवी-फुटेज, फोन-ट्रेसेस और अंतरराष्ट्रीय खुफिया बातचीत — इन सभी का त्वरित, वैज्ञानिक और पारदर्शी संकलन होना चाहिए। यदि UAPA धाराएँ वास्तव में लागू की गई हैं, तो अदालत और मीडिया दोनों में तथ्यों का कठोर लेखा-जोखा दे कर सरकार को अपनी स्थिति मजबूत करनी चाहिए। झूठी या आधी-सत्य जानकारी न केवल न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करेगी, बल्कि सामाजिक तनाव भी बढ़ाएगी।

सिफारिशें (नीतिगत और प्रशासनिक)


  • त्वरित, सार्वजनिक और तथ्यप्रधान संवाद: सरकार और पुलिस-एजेंसियों को दैनिक स्थिति-रिपोर्ट देनी चाहिए — क्या मिला, कौन पकड़ा गया, किस प्रकार की सामग्री पायी गयी — ताकि अफवाह और अटकलों से जनता की आशंकाएँ नियंत्रित हों।

  • खुफिया साझेदारी तेज करें: पड़ोसी देशों तथा मित्र देशों के साथ सूचनाओं का आदान-प्रदान बढ़ाएँ; सीमा पार नेटवर्क की सटीकता बढ़ाएँ।

  • सार्वजनिक-सुरक्षा संचालन: दिल्ली जैसे उच्च-प्रोफ़ाइल स्मारकों के आसपास वाहन-प्रवेश व पार्किंग-नीतियों, मेट्रो निकासी-रूट और आपातकालीन प्रतिक्रिया-प्रशिक्षण पर पुनर्विचार ज़रूरी है।

  • कूटनीतिक संयम, परन्तु निर्णायक: अगर फोरेंसिक व खुफिया प्रमाण सीमा पार कृत्यों की ओर इशारा करें, तो सरकार के पास निर्णायक विकल्प होने चाहिए — पर निर्णय में तर्कसंगतता और अन्तरराष्ट्रीय नियमों का पालन अनिवार्य है।

अंततः 
लाल-किले के पास हुआ यह धमाका सिर्फ एक आंतरिक कानून-व्यवस्था का मामला नहीं है; यह उस व्यापक रणनीतिक परिदृश्य का संकेत भी है जिसमें दक्षिण-एशिया की शांति फिलहाल तलवार की नोक पर टिकती दिखती है। सरकार का निर्णय — चाहे वह इस कृत्य को आतंकी करार दे या न दे — क्षेत्रीय गतिकी और भारत की भविष्य नीति को गहराई से प्रभावित करेगा। इसलिए आवश्यकता है कि निर्णय त्वरित तो हो, परंतु तथ्य-प्रधान, पारदर्शी और रणनीतिक रूप से संतुलित हो। मृतकों के परिवारों के प्रति संवेदना और घायलों के शीघ्र स्वास्थ्य-लाभ की प्रार्थना के साथ, हमें ठोस खुफिया-साक्ष्य और न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान करते हुए सुरक्षित, परिमापक और जिम्मेदार नीति की अपेक्षा करनी चाहिए।



✍️ अधिवक्ता कृष्णा बारस्कर
(विधिक विश्लेषक एवं स्तंभकार)

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वोट-बैंक की राजनीति में दिव्यांगों की उपेक्षा: हकीकत या बहाना?

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भारतीय राजनीति में सामाजिक कल्याण योजनाएँ हमेशा ही प्रमुख विषय रही हैं — विशेष रूप से चुनावों के समय। 2023 के Bharatiya Janata Party (भाजपा) के मध्य प्रदेश संकल्प-पत्र ने महिलाओं, किसानों, स्वरोजगार-उद्यमियों एवं असंगठित श्रमिकों को केंद्र में रखा। लेकिन जब हम उसी दस्तावेज़ को दिव्यांग, निराश्रित व सबसे अधिक जरूरतमंद नागरिकों के संदर्भ में पढ़ते हैं, तब एक गहरी खाई दिखती है — वहाँ जहाँ वादा था, वहाँ क्रिया नहीं दिखती; जहाँ क्रिया है वहाँ कवरेज अधूरी।
इस लेख में हम यह विश्लेषण करेंगे कि कैसे सामाजिक-लेखक एवं शोध-पत्र इस विषय पर बात कर रहे हैं, और क्यों लगता है कि योजनाएँ जनहित से ऊपर “वोट-बैंक हित” की दिशा में संचालित हो रही हैं।

शोध-संदर्भ और सामाजिक परिदृश्य:

विद्वानों व सामाजिक लेखक-समीक्षकों ने बार-बार यह इंगित किया है कि दिव्यांग नागरिकों को संबंधित नीतियाँ उपलब्ध तो हैं, लेकिन क्रियान्वयन और पहुँच में बहुत बड़ी बाधाएँ हैं। उदाहरण के लिए, अनिता घाई की संपादकीय समीक्षा “Human Security, Social Cohesion, and Disability” में यह कहा गया है कि ‘विकलांग लोग समान रूप से नहीं माने जाते; वैश्वीकरण-प्रवृत्तियों की छाया में उनका एक सामाजिक सुरक्षा-मानवाधिकार दृष्टि से पक्ष नहीं बन पाता’।
इसी तरह, एक समीक्षा-पत्र “Evaluating Social Security Measures for Persons with Disabilities in India: Challenges and Policy Recommendations” संकेत देता है कि भारत में दिव्यांगों के लिए मूलभूत पेंशन, स्वास्थ्य सहायता और सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ मौजूद हैं, लेकिन “जटिल प्रक्रियाएँ, सीमित बजट और जागरूकता की कमी” उन्हें लाभार्थी तक पहुँचने से रोकती हैं।
इन विश्लेषणों से एक बात स्पष्ट होती है — नीति-दस्तावेज बने-बनाए हैं, परिंद्री रूप से लागू करने में कमी है, विशेष रूप से उन नागरिकों के लिए जिनका राजनीतिक दृष्टिकोण से वोट-बैंक में महत्व कम माना जाता है।

संकल्प-पत्र व वादों की वास्तविकता:

मध्य प्रदेश भाजपा 2023 के संकल्प-पत्र में पृष्ट 12 पर स्पष्ट घोषणा थी:

“₹1,500 की मासिक पेंशन — वरिष्ठ एवं दिव्यांग नागरिकों को लाभ।”
हालांकि यह भी ऊंट के मुह मे जीरा बराबर ही है लेकिन फिर भी यह घोषणा उम्मीद जगाती है कि सरकार ने सबसे कमजोर वर्गों को आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा की दिशा में प्राथमिकता दी है। परंतु क्रियान्वयन की स्थिति कुछ इस प्रकार दिखती है:

अद्यतन सरकारी स्रोतों के अनुसार, दिव्यांग पेंशन आज भी मध्य प्रदेश में ₹600-₹1,000 मासिक की सीमा में है; ₹1,500 की दर मई 2025 तक लागू नहीं पाई गई।

शोध-साक्ष्यों के अनुसार (उदाहरण के लिए वित्तीय सहायता पाने वालों मे वास्तविक जरूरतमंद दिव्यांगों की हिस्सेदारी कम रही) कि पहुँच की समस्या और लाभ वितरण की क्रियात्मक खामियाँ बनी रहीं।

इसके विपरीत, महिलाओं के लिए मासिक आर्थिक सहायता एवं किसानों के लिए सम्मान निधि जैसी योजनाओं को चुनावी समय में प्रमुखता से प्रचारित किया गया, जिससे यह प्रतीत होता है कि जहाँ वोट-संख्या अधिक थी, वहाँ क्रियान्वयन तेज था।
वोट बैंक बनाम जरूरतमंद:

यहां प्रश्न यह उठता है कि क्या सरकार वास्तव में जरूरतमंदों को प्राथमिकता दे रही है या केवल उन वर्गों को जिसे राजनीतिक दृष्टि से उपयोगी माना जाता है? मैं इस विषय पर तीन बिंदुओं से चिंतन कर रहा हूँ:

वोट-संख्या और सामाजिक सहायता:
महिलाओं (लाड़ली बहन योजना) तथा किसानों को योजनाएँ दिए जाना विश्लेषित है कि वहाँ संख्या-बैंक मजबूत है, इसलिए सरकार ने उसे उपयुक्त रूप से समयबद्ध व स्पष्ट घोषणा के साथ उठाया। परन्तु दिव्यांग/निर्जीव-लाभार्थियों का पूरा लाभ उठना नहीं दिखता — शायद क्योंकि यह वर्ग राजनीतिक दृष्टि से बड़ी संख्या में नहीं है। यदि योजनाएँ वोट-सुझाव पर आधारित हों, तो यह लोकतंत्र व सामाजिक न्याय दोनों के लिए चिन्ताजनक संकेत है।

निर्भरकर्ता वोट बैंक की रणनीति:
एक जोखिम यह है कि सरकार ऐसे लाभ योजनाएं चलाती है जिनसे लाभार्थी “निर्भर” हो जाएँ — स्थायी स्वरूप में आदर्श नागरिक नहीं, बल्कि लाभ के लिए इंतजार करने वाला वोट बैंक बन जाएँ। अगर दिव्यांगों को लाभ नहीं मिलता तथा योजनाएँ सिर्फ घोषणाओं तक सीमित रह जाएँ, तो यह सामाजिक-न्याय दृष्टि से यह संकेत देती है कि “जरूरतमंद को छोड़, मतदान-उपयुक्त को फायदा” की नीति चल रही है।

मूलभूत पहुँच और क्रियान्वयन का अभाव:
शोध बताते हैं कि योजनाओं का लाभ तभी संभव होता है जब पहुँच (पेंशन, स्वास्थ्य, शिक्षा) सुलभ हो, सूचना व जागरूकता मौजूद हो, और वितरण तंत्र सुचारू हो। लेकिन भारत में 53% से अधिक असंगठित श्रमिक समूह के पास सामाजिक सुरक्षा ही नहीं है। अगर ऐसे में दिव्यांगों को प्राथमिकता न मिले, तो राजनीतिक घोषणाएँ सिर्फ “प्रतीकात्मक” बन जाती हैं — उनका वास्तविक लाभ नहीं दिखता।

सुझाव — सामाजिक न्याय के लिए मजबूती:
यदि हम वास्तव में “सबका साथ, सबका विकास” का मूल मंत्र अपनाना चाहते हैं, तो यह आवश्यक है कि:
  • घोषित प्रतिमानों जैसे ₹1,500 की पेंशन को बढ़ाकर कम से कम 10,000 किया जाए एवं इसे समयबद्ध रूप से लागू हों और सार्वजनिक-पारदर्शी रिपोर्टिंग हो।
  • लाभार्थी वर्गों की संख्या-सूची सार्वजनिक हो और लाभ वितरण का आकलन स्वतंत्र स्रोतों द्वारा किया जाए।
  • सामाजिक योजनाओं का प्रचार वोट-संख्या आधारित न हो, बल्कि जरूरत-आधारित हो — यानी सबसे पीछे खड़े नागरिकों को प्राथमिकता मिले।
  • लाभ वितरण तंत्र (पंजीकरण-प्रक्रिया, पहचान-कार्ड, बैंक खाते, सहायता का ट्रैकिंग) सरल व समावेशी बनें, ताकि दिव्यांग-निराश्रित लाभ से वंचित न रहें।
  • सामाजिक-लेखन व मीडिया द्वारा निरंतर मॉनिटरिंग हो — जैसे शोधों में सुझाव दिया गया है कि दिव्यांगों को “टोकन” के रूप में नहीं, बल्कि वास्तविक हिस्सेदारी व अधिकार-आधारित दृष्टि से देखा जाना चाहिए।

अंततः

राजनीति में योजनाओं का महत्व रहेगा — पर यह सुनिश्चित करना हमारी जिम्मेदारी है कि योजनाएँ केवल चार्ट-लाइन में न रहें, बल्कि वास्तविक जीवन में लागू हों। दिव्यांग, निराश्रित और असहाय नागरिक इसी देश की धड़कन हैं — अगर उनके लिए सिर्फ घोषणाएँ हों और क्रियान्वयन न हो, तो यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के प्रति उपेक्षा है।
हमें चुनावी घोषणाओं की चमक से आगे-आगे देखना होगा — उनकी क्रियान्वयन की चमक को भी देखने की जरूरत है। तभी हम कह सकते हैं कि “वोट बैंक नहीं, मानव बैंक” हमारा लक्ष्य है।



लेखक

✍️ अधिवक्ता कृष्णा बारस्कर
(विधिक विश्लेषक एवं स्तंभकार)

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