‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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देशी मेम विलायती चाकलेट:

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एक दिन मै इंदौर किसी काम से गया था.. वापसी में जिस ट्रेन से वापस आ रहा था वो उज्जैन में करीब १ घंटा रुकी रही वहा एक अजीब सा किस्सा देखने को मिला जिसे मै ना चाहकर भी किसी से शेयर नहीं कर पा रहा था, क्योंकि मै जिस उम्र में हू वो इन बातो को समझने कि अक्ल नहीं रखते क्योकि इस उम्र के लोग ही इस किस्से के अहम् भाग है! पर अब बात पेट में पच ही नहीं रही है इसलिए सोच रहा हूँ कि इस किस्से को बहार निकल ही लू .. तो लीजिये अब शेयर कर ही लेता हू.....



parrrrrrrrrrrr रुकिए.. पहले जान लीजिये पहली बार मेरी खुद कि पोस्टिंग ब्लॉग पर कर रहा हू ... गलती पर जूते मरने के बजाये कान पकड़ेंगे तो मुझे ज्यादा खुसी होगी...

उस दिन लगभग रात के ११ बज रहे थे मुझे बैतूल आना था, सो मैंने इंदौर से त्रिशताब्दी एक्सप्रेस वाया उज्जैन पकड़ी,, उस दिन मै अकेला सफ़र कर रहा था मेरे पास सिर्फ एक बैग था,, जब भी मै अकेले सफ़र करता हू तो बड़े ही मजे से समय कटता है.. उस दिन भी जैसे ही ट्रेन उज्जैन पहुंची मै ट्रेन से निकला और वहा पर स्टाल से काफी सारी खाने-पीने कि चीजे लेकर आ गया पास ही के एक बेंच पर बैठकर खाने लगा..

वही बगल ही के बेंच पर एक फॅमिली आयी थी सायद अपने कुछ मेहमानों को छोड़ने उसमे 3 बच्चे एक ७५-८० वर्ष कि बुढिया नानी एक ८०-८५ वर्ष के बूढ़े नाना और एक अंकल एक आंटी, और २ सुन्दर सी, विलायती सी, कम कपड़ो वाली दो युवतिया भी थी ... उनके परिवेस से ही लग रहा था कि उनपर विदेशी संस्कृति का कितना ज्यादा प्रभाव है..समझ गए ना कैसा असर ??? कि समझाना पड़ेगा ??

उनकी हर एक अदा मेरे जैसे भारतीय को एहसास दिला रही थी कि अबे इंडियन हमारे सामने तेरी क्या औकात है... तू गीदड़ हम शेर है.....

थोड़ी ही देर बैठकर समझ आ गया कि वो लोग अपने नाना नानी को छोडने के लिए रेलवे स्टेशन आये थे... मै बैठकर अपनी खरीदी हुई डेरी मिल्क, क्रीम बिस्कुइट्स और एक आइस क्रीम ख़त्म करने में लगा था.. अब बच्चे तो बच्चे होते है, बच्चे मेरे आसपास खेलते-खेलते वो भी मेरे काम में मेरा हाथ बटाने लगे.. बस देखते ही देखते बच्चो से मेरी दोस्ती हो गयी..

लोग कहते है कि चुम्बक के २ ध्रुव (+) और (-) जहा होंगे तो दोनों में आकर्षण और सर्वश्रेष्ठ कि होड़ तो होती ही है ... मुझे चोकोलेट्स खाते देख और बच्चो के साथ मेरी करीबी देख कर उन लडकियों के मन में ना जाने क्या आया कि उन्होंने अपनी विलायती से पर्श में से कुछ विलायती सी चाकलेट निकाली और अपने नाना-नानी कि तरफ बढाते हुए बोली ये लीजिये नानी ये चोकोलेट जो है ना मैंने लन्दन से लेकर आयी हू इन्हें मामा, मामी, मौसी को भी खिलाना और आप भी खाना,,, अब दूसरी लड़की ने भी उसी पर्स में से एक डिब्बा निकाला और बताते हुए नानी को दिया कि ये ना सिडनी से लाया हुआ आचार है हम वहा आफिसिअल टूर पर गए थे तो वहा से लेते आये... नाना-नानी बेचारे उनके पैर तो कब्र में लटके थे वो क्या जाने लन्दन के चाकलेट और इंडिया के चाकलेट और सिडनी के आचार और इंडिया के आचार के स्वाद में क्या फर्क होता है ... ऐसे ही उनके साथ आये हुए बच्चे थे उन्हें लन्दन या सिडनी के चाकलेट के स्वाद में कोई इंटेरेस्ट नहीं आया वो तो मेरे साथ बैठकर देशी नमकीन का स्वाद ले रहे थे...बच्चे तो क्वालिटी के बजाये स्वाद और एंजोयमेंट पर ज्यादा फोकस्ड होते है.. और आप सब जानते है देसी स्वाद तो देसी ही होता है... बच्चो और बूढों के लिए तो देशी और विदेशी दोनों ही चाकलेट खाने कि वस्तु है...

पर "देसी विलायतियो" के लिए तो रद्दी का कचरा भी अगर विदेशी लेबल में हो तो वो बहुत मायने रखता है ... आखिर विदेशी नाम जुड़ने से उनका कद जो बढ़ जायेगा दुसरे "देसी विलायातियो" कि जमात में ....... खैर!! हम दोष दे भी तो किसको दे ये एक चलन है और इसे बदलने के लिए कौन सुरुवात करके माथा पच्ची करे... औरो कि तरह हम भी मान लेते है- The things out labeled out of India are best.. .....
ऐसा वाक्या देखकर मुझे एहसास हुआ कि हमारे देश में परदेशी खान-पान, संस्कृति, और परिवेश का कितना असर है ... चाहे विदेसी हमारे ही यहाँ का आम ले जाकर उसपर अपना लेबल लगाकर आचार बेच रहे हो पर विदेशी तो विदेशी होता है ना.. वो हमसे सर्वश्रेष्ठ तो होगा ही ? खैर ये विषय तो हमारे गुलाम मानसिकता जो हम कभी भी पीछे नहीं छोड़ पाए उस से जुडा है .. इतनी अकल है नहीं मुझमे कि मै उसपर भी लिख दू..
पर हमारे "विलायति भारतीयों" के समाज में इज्जत पाना है तो हमें अपने उपर विदेशी संस्कृति का कुछ ना कुछ लेबल तो लगाना ही पड़ेगा ...

चाहे विदेशी स्टाइल के कपडे हो ,, खान पान हो,, विदेशी डिग्री हो.... विदेशी चाकलेट या फिर अचार ... कुछ ना कुछ तो विदेशी होना ही चाहिए...इसलिए तो अमेरिकेन किसान का खेती-किसानी में काम आने वाला "जींस पेंट" हमारे देश के सूट-बूट वाले पढ़े लिखे लोगो का फेसन कोड बन गया है....

ये देखकर मै भी सोचता हू कि मुझे भी कभी विदेशी लेबल लगाने का मौका मिला था अच्छा खासा सेलरी और जॉब ऑफर हुआ था फिर मै क्यों नहीं बना विलायति ?  ... सायद उस समय मेरे गरीब किसान पिताजी को उन २०० वर्ष कि गुलामी याद आ गयी जिस से हमारा देश अभी भी पूरी तरह से उबर नहीं पाया है ..
वही आज भी कुछ लोग है जो भारत को श्रेष्ठ मानने को तैयार ही नहीं है...

जबकि उधर सबसे ताकतवर और अमीर देश का प्रधान मंत्री ओबामा चिल्ला चिल्लाकर अपनी विद्यार्थियों और विश्व को चिल्ला-चिल्लाकर बता रहा है कि "Indians are the best "

जब दुनिया मन रही है तो हम क्यों नहीं अपनी आपको बेस्ट मानते ?? हम औरो के लिए करते है स्वदेश के लिए क्यों नहीं कुछ करते ? अगर हम अपनी देशहित में सोचने वाले होते तो आज आई टी क्षेत्र के कि दिग्गज गूगल, अमेज़न, एप्पल, केसिको, ओरेकल, माइक्रोसोफ्ट, और व्केलाक्कम जिनके विकाश में अप्रवासी भारतीयों ने बहुत बड़े बड़े योगदान दिए है साथ ही श्री विनोद खोसला कि माइक्रोसिस्टम, सबीर भाटिया कि हाटमेल अरुण नेत्रवाली कि ऐ टी एंड बेल कंपनी जिनके संस्थापक भारतीय है ऐसी कंपनिया हमारे देश में होती!


चिट्ठाजगत

8 Responses so far.

  1. बहुत पहले एक मंत्री महोदय दुबाई गये थे। लौटते समय उन्हें एक घड़ी चाहिए थी। एक दुकान में गये वहां उन्हें अनेकों मंहगी घड़ियों में निर्णय नहीं ले पाता देख दुकानदार ने कहा कि यदि आप सस्ती और बेहतर चीज चाहते हैं तो यह ले लीजिए और उसने एक सुंदर सी घड़ी निकाल उनके सामने रख दी। मंत्री महोदय उसे देख हैरान रह गये क्योंकि वह भारत में बनी "एच एम टी" की घड़ी थी।

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  3. tum teek keh rahe ho dost bharat such me ek mahan desh hai aor hume is par garv hai par kucch logo par to videsh ka bhut sa savar hai rehte to yahaan hai par gun gaan vahaan ka karte hain hume to un par taras aata hai ki chahte hue bhi vo apne status ki vajha se isse apna nahi pate.

 
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