सुनते तो हैं की अकेले आये थे अकेले ही जाना है बात तो ये सच है पर इन सब का एहसास संसार में आते ही ख़तम केसे हो जाता है ये समझ में नहीं आता ! पैदा होते ही माँ की गोद और फिर ये सिलसिला जेसे थमने का नाम ही नहीं लेती और ये हमारी जेसे आदत ही बनने लगती है और फिर भीड़ से जुड़ने का सिलसला शुरू हो जाता है जो सारी जिंदगी चलता ही रहता है !इतने लम्बे सफ़र में न जाने कितनो से मुलाकात होती है जिनमे कुच्छ बहुत अच्छे होते हैं जिनके विचारो से हम प्रभावित होते हैं और कुच्छ येसे जिनके विचार हमारे विचारो से मेल नहीं खाते फिर भी हम उनके साथ जुड़े रहते हैं कारन वही, क्युकी हमे तो भीड़ से जुड़ने की आदत जो पड़ गई है और यही कारन भी है की जब हम इनसे दूर होने की सोचने लगते हैं तो हमे अकेलेपन का एहसास सताने लगता है !और फिर से वही सिलसिला शुरू हो जाता है भीड़ में शमिल होने का और वही दुःख सुख का रेला जो खटी मीठी यादो के साथ हमे कभी हंसती है तो कभी रुलाती भी है !
सुख दुःख जीवन के दो पहिये के सम्मान हैं दोनों जीवन में रंग भरने का काम करते हैं अगर एक की भी कमी हो जाये तो हमारी तस्वीर अधूरी रह जाती है !इसलिए संसार में हर एक चीज़ अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है जब तक दुःख न आएगा हम सुख का अनुभव कर ही नहीं पाएंगे जब तक रोना न होगा तब तक हंसी का मज़ा चख ही नहीं सकते इसलिए हसना_ रोना , सुख_ दुःख इसी भीड़ से तो हमे मिलता है तो हम इससे दूर केसे रह सकते हैं !किसी एक का एहसास ही दुसरे के एहसास को बढाता है फिर गिला किस बात का दोस्तों दोनों ही तो अपने हैं शायद इसी का नाम जिंदगी है ! तो क्यु न इसे हंस के जिए और जिंदगी के हर रंग में रंग जाये जिससे किसी से गिला ही न हो और न ही कोई उमीद जो हर पल सपने दिखाती है और पूरा न होने पर दुःख दे जाती है तो निस्वार्थ भाव से जीते चले जाते हैं जिससे दुसरे को ख़ुशी दे सके और अकेले रहने की आदत भी पड़ जाये एक पंथ दो काज !
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