माननीय सुप्रीम कोर्ट ने लखनऊ की इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पीठ में लम्बित रामजन्मभूंमि/बाबरी मस्जिद प्रकरण के सिलसिले में २४ सितम्बर को जो अंतरिम आदेश दिया है, वह कानूनी दृष्टि से व विभिन्न दृष्टिकोण से गहन विचारणीय है। पूर्व नौकरशाह श्री रमेशचंद्र त्रिपाठी द्वारा एक आम नागरिक की हैसियत से दाखिल किये गये आवेदन पर माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा उच्च न्यायालय को २८ सितम्बर तक निर्णय देने से रोके जाने के अंतरिम आदेश पारित किये गये जो वास्तव में सर्वदृष्टि से आश्चर्यजनक व कानूनी दृष्टि से अनपेक्षित है।
गौरतलब है ६० वर्ष से भी अधिक पुराने इस लम्बित प्रकरण में माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा २४ सितम्बर को निर्णय दिया जाना था। इसे स्थगित करने के लिए श्री रमेशचंद्र त्रिपाठी द्वारा इस आधार पर आवेदन लगाया गया कि माननीय उच्च न्यायालय में लम्बित मामले को न्यायालय के बाहर आपसी सहमति से सुलझाने के लिए कुछ समय और मिलना चाहिए तथा कामन वेल्थ गेम एवं सुरक्षा के कारणो से फैसला टाला जाना चाहिए। तब उस पर माननीय उच्च न्यायालय ने उक्त आवेदन को न केवल अस्वीकृत किया बल्कि ५० हजार रूपये का जुर्माना भी आवेदनकर्ता पर आरोपित किया था। उसके पश्चात श्री रमेश चंद्र त्रिपाठी द्वारा माननीय उच्चतम न्यायालय में एक आवेदन लगाकर उक्त मामले में माननीय उच्च न्यायालय को निर्णय दिये जाने सेरोके जाने हेतु आवेदन २२ सितंबर को दिया गया। यह आश्चर्यजनक है कि इस पर माननीय उच्चतम न्यायालय की एक बैंच ने यह कहकर सुनवाई करने से अस्वीकार कर दिया था कि मामला सिविल प्रकृति का होने के कारण ''हमें फैसला लेने का हक नही है।'' तब यह मामला दूसरी बेंच के सामने प्रस्तुत किया गया। माननीय उच्चतम न्यायालय ने इस पर सुनवाई कर सुलह होने की सम्भावना के मद्देनजर माननीय उच्च न्यायालय को २८ सितम्बर तक निर्णय देने से रोक दिया। माननीय न्यायालय द्वारा यह कहा गया कि सात दिन के भीतर समस्त पक्ष इस सम्बंध में विचार करें जिसके लिए उन्होने सम्बंधित पक्षकारों के साथ-साथ केंद्रीय सरकार को भी अटार्नी जनरल के माध्यम से नोटिस जारी किया।
भारत राष्ट्र के न्यायिक क्षेत्र की सबसे ऊपरी अदालत, माननीय उच्चतम न्यायालय के इतिहास में शायद यह प्रथम अवसर है, जब कोई प्रकरण उच्च न्यायालय में आदेशार्थ बंद व निर्णय की तारीख तय होने के बाद, निर्णय आने के पूर्व ही माननीय उच्चतम न्यायालय ने माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय को निर्णय देने से रोक लगा दी है। सामान्यत: माननीय उच्च न्यायालय के किसी निर्णय को प्रभावहीन या प्रभावशून्य करने के लिए माननीय उच्चतम न्यायालय आदेश पारित होने के बाद ही उस पर तत्काल रोक लगा सकती है। माननीय उच्च न्यायालय भी अपने निर्णय की प्रभावशीलता को पक्षकारो के अनुरोध पर रोक सकती है, ताकि उच्चतम न्यायालय से स्टे आदि लगाया जा सके। भारतीय न्याय पालिका के इतिहास में शायद ऐसा कभी पहले नहीं देखा गया कि जब ६० वर्ष से अधिक अवधि के बेहद विवादित मामले में एक ऐसे व्यक्ति की याचिका पर मामले को स्थगित किया गया जोकि प्रकरण में विवादित विषय को सुलह करने में सक्षम नहीं है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने किस आधार पर ७ दिन समझौते के लिए दिये यह भी स्पष्ट नहीं है। जबकि कोई भी पक्ष समझौते के लिए समय मांगने न्यायालय के पास नहीं गया था। यहां यह तथ्य उल्लेखनीय है कि २८ मे से २७ पक्ष सुलह के पक्ष मे नही थे। निर्मोही अखाड़ा एवं सुन्नी वक्फ बोर्ड दोनो मुख्य पक्ष जो कि विपरीत विचारधाराओं के है, ने भी न्यायालय के समक्ष सुलह के तर्क को अस्वीकार कर निर्णय स्थगित करने का विरोध किया था (कम से कम इस स्थिति में तो संभवतया दिखाई पड़ी)। इतना ही नही दोनो पक्षो ने यह भी स्पष्ट कहा कि ६० साल से पूर्णत: विवादित मुद्दे को ६ दिन में सुलझाया नहीं जा सकता है। क्या इस से यह सिद्ध नहीं हो जाता कि माननीय उच्चतम न्यायालय भी न्यायिक प्रक्रिया के बाहर की कार्यवाहियों, गतिविधियों के प्रति अत्यंत संवेदनशील हो गई है। क्योंकि पिछले १५ दिन से जबसे निर्णय देने की तारीख तय हुई है पूरे देश में संबंधित पक्षो को छोड़कर जो न्यायालय में पक्षकार है, पूरे इलेक्ट्रानिक मीडिया, प्रिंट मीडिया, केंद्र सरकार, राज्य सरकारों ने एक ऐसा हौव्वा खड़ा कर दिया था कि २४ तारीख को देश में बहुत बड़ी गाज गिरने वाली है (जैसे की आकाश से कोई उल्कापात होने वाला है)। जिससे होने वाली बहुत बड़ी अनहोनी की आंशका के कारण माननीय उच्चतम न्यायालय ने उक्त आदेश पारित किया है। इस प्रकार पुन: एक बार माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपने को 'सुप्रीम' सिद्ध किया है। क्या 'सुप्रीम' होने की भावना ने ही माननीय उच्चतम न्यायालय को बार-बार इस तरह के आदेश देने के लिये प्रेरित तो नहीं किया? क्योंकि माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि यह मामला एक पक्षकार का नहीं बल्कि करोडो लोगो की भावनाओ से जुड़ा है व एक प्रतिशत भी सुलह की संभावना हो तो समय दिया जाना चाहिए।
प्रश्र: पुन: यही पैदा होता है कि क्या माननीय उच्चतम न्यायालय का उक्त आदेश उसके क्षेत्राधिकार में है। इससे भी बड़ा यह प्रश्र है कि क्या माननीय न्यायाधीश को उसके समक्ष लम्बित प्रकरण के तथ्यपरक व कानून के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय, स्थिति या परिस्थिति के लिए संवेदनशील होना चाहिए? माननीय न्यायाधीश भी मानव है व संवेदनशीलता मानव का एक सहज गुण है। लेकिन क्या उनकी मानवीय संवेदना मुकदमे के तथ्य व कानूनी पक्ष के अतिरिक्त किसी अन्य चीज, तथ्य या भावना पर अवलम्बित होने पर तब क्या निर्भीक एवं न्यायिक निर्णय संभव है? यह आम धारणा है कि कानून अंधा होता है। इसीलिए जब माननीय न्यायाधीश निर्णय देते है तो यह उम्मीद की जाती है कि वह परिस्थिति, काल इत्यादि से परे पक्षकारो, समाज या देश पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। उससे विचलित हुये बिना एक न्यायिक निर्णय की उम्मीद की जाती है। तभी 'न्याय' होता है। पिछले कुछ समय से हम यह देख रहे है कि माननीय न्यायालय निर्णय देते समय परिस्थितियों से प्रभावित होते हैं। हाल में ही अनाज मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय की फटकार के बाद जब केंद्रीय सरकार ने शपथ-पत्र देकर अनाज बांटना स्वीकार कियाथा तब उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि हम इस बात से बहुत खुश है कि हमारे आदेशानुसार सरकार ने कम कीमत पर अनाज बांटने के बारे में विस्तृत जवाब पेश किया है' क्या न्यायालय स्वयं को खुश या दुखी होकर या पक्षकारों को होने वाले सुखी या दुखी की भावना से ग्रसित होकर निर्णय देते है? प्रश्न यह उत्पन्न होता है।
यह आदेश न्यायालय के विवेक पर भी यक्ष प्रश्र उत्पन्न करता है। जब एक माननीय न्यायाधीश महोदय यह कहते है कि सुलह की एक प्रतिशत सम्भावना भी हो तो उसके लिए अवसर दिया जाना चाहिए। तो क्या उनका विवेक इस बात को नहीं महसूस कर रहा है कि ६० साल से दोनो पक्ष मुकदमा लड़ रहे है। इन सालो में कई ऐसे एक अवसर आये जब मुद्दो में शामिल नही, कई पक्ष व निर्णय से प्रभावित होने वाले पक्षो के बीच व केंद्रीय शासन के बीच व आध्यात्मिक संतो व मौलवियों के बीच कई बार परस्पर बातचीत हुई लेकिन सुलह के नजदीक पहुंचने के बावजूद मात्र राजनीति के चलते सुलह समझौता नहीं हो सका। मात्र किसी बड़ी घटना की आशंका के मद्देनजर, देशमें तथाकथित तनाव होने के कारण, निर्णयो के प्रभाव का असर मात्र पक्षकारो पर न होकर करोड़ो लोगो पर होने के कारण ही क्या माननीय उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वह स्वयं निर्मित पंचाट की भूमिंका में आकर वह आदेश जारी करे जिसकी मांग २८ में से २७ पक्षकारों ने नही की? फिर माननीय उच्चतम न्यायालय के पास इस बात का कोई आधार नहीं है और न ही आवेदक श्री रमेशचंद्र त्रिपाठी ने माननीय उच्चतम न्यायालय को बतलाया कि उच्च न्यायालय के समक्ष लम्बित समस्त २८ पक्ष इस सुलह के लिए तैयार है तथा वे तथाकथित होने वाले समझौते को पूर्ण रूप से मानेंगे व उसका पालन करेंगे और २८ पक्षों द्वारा तय किये जाने वाले निर्णयों को करोड़ो नागरिक भी मान लेंगे जिनके प्रभावित होने की भावना के आधार पर ही माननीय उच्चतम न्यायालय ने उक्त निर्णय दिया है।
एक और महत्वपूर्ण प्रश्र उक्त स्थगन आदेश से यह उत्पन्न होता है कि जब एक तरफ करोड़ो नागरिको की भावनाओं का प्रश्र माननीय न्यायाधीश के सामने आता है तब साथ-साथ माननीय न्यायाधीश के मन में यह बात क्यों नहीं आई कि उक्त मामला ६० सालों से लम्बित होने के कारण वैसे ही बहुत पेचिदा हो गया है व करोड़ो लोगो की एक दूसरे वर्ग के प्रति विपरीत भावनाए समय गुजरते मुकदमा लम्बित होने के कारण और 'मजबूत' होते जा रही है। यह कहा गया है ''न्याय में देरी न्याय न देने के समान है'' (डिले इन जस्टिस इज जस्टिस डिनाइड), इसलिए यदि उक्त मुकदमें का निर्णय समय रहते हो जाता तो मंदिर-मस्जिद टूटने की घटना ही नहीं होती और न ही देश में इस तरह का उन्माद पैदा करने में शासन या मीडिया सफल होते। अब निर्णय स्थगित होने पर क्या यह संभव है कि निर्णय १ तारीख के पूर्व आ जावे क्योंकि माननीय एक न्यायाधीश आगामी एक तारीख को रिटायर हो रहे है। यदि १ तारीख के पहले निर्णय नहीं आया व रिटायर होने वाले माननीय न्यायाधीश का कार्यकाल नहीं बढ़ा (जिसकी सम्भावना बिल्कुल नहीं है क्योकि उक्त प्रक्रिया समय लेने वाली है) तो मामला एक बार पुन: सालो लटकने की संभावना बन रही है क्योंकि न्यायिक प्रक्रिया के अनुसार नये न्यायाधीश आने पर मामले में फिर से बहस होगी। जब २८ पक्षो की तरफ से विभिन्न बड़े-बड़े व नामी-गिरामी वकील लगातार एड़ी-चोटी से लम्बी बहस करेंगे तो वास्तव में 'समय' उनके सामने छोटा पड़ जायेगा जो अन्तत: आम नागरिकों में अनावश्यक रोष उत्पन्न करेगा जिससे माननीय न्यायालय को भी बचना चाहिए था। माननीय न्यायालय के उक्त अचानक स्थगन से भारत व विभिन्न-राज्यों के शासन के अरबो रूपये सुरक्षा व्यवस्था में खर्च हो गये जो उन्हे पुन: खर्च करने पड़ेंगे जिसकी जिम्मेदारी भी अंतत: माननीय उच्चतम न्यायालय के उक्त निर्णय पर आती है।
अंत में एक बहुत ही यक्ष प्रश्र धीरे-धीरे देश के नागरिको के समक्ष पैदा हो रहा है कि क्या कार्यपालिका व विधायिका अपने लक्ष्य को कल्याणकारी कार्यो एवं नागरिको के हितो में लगाने में निरंतर असफल रहने के कारण क्या शासन ''न्यायपालिका'' व 'मीडिया' चलायेंगे? इसका उत्तर आज नहीं तो कल अवश्य देना होगा यदि संविधान के तीनो अंग व लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ इसी तरह से कार्य करते रहें तो?
All is well that ends well. I am satisfied with the verdict ultimately.
Gita Main kaha gaya hai jo hua aatcha hua jo hoga aatcha hi hoga
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