सादी के पहले के लड्डू
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खाऊ की नहीं ?
कैसे खाऊ ?
क्यूं खाऊ ?
क्यूं न खाऊ ?
क्या खाना उचित होगा ?
खाकर पचा पाऊंगा?
कही खाकर डायबिटीज हो गई तो?
क्या ये खाने का उचित समय है?
क्या मन भरेगा?
कही उल्टी हो गई तो?
सभी तो खा रहे है, फिर मैं क्यो न खाऊ?
मम्मी-पापा दे रहे है तो अच्छा ही होगा?
पर मैंने जो लेकर आया था उसका क्या होगा?
कोई ना कोई उसे भी खा ही लेगा?
चलो मम्मी-पापा की पसंद खाकर देख ही लेते है..
जो होगा रब दी मरजी..
सादी के पहले की बेकरारी हर शादी योग्य
कुवांरे के मन में होती है,
सोच-सोचकर दुबले हुए जाते है,
और आखरी में भगवान भरोसे अपने बाकी के
जीवन को एक अंजान इंसान को सौप देते है।
अपने मन में सजाये लाखों सपने,
अपने अरमान मम्मी-पापा की
इज्जत में मिला देते है।
ना भविष्य की फिकर ना
वर्तमान का ज्ञान जो होगा रब दी मरजी।
बस मन में यही ध्यान रहता है
कि मेरे मम्मी-पापा की लाज रखणी है।
मेरे कारण उनका सिर ना झुकने पाये,
चाहे मेरी सूली लग जाए।
पंडित तो समाज की कुण्डली मिला देता है,
पर आपस की कुण्डली मिलाने में
उनको पुरा जनम लग जाता है।
कभी-कभी तो ये लड्डू पच जाता है
पर अगर ना पचा तो?
सारी उम्र मम्मी पापा को दोस देते है।
और अगर अपने पसंद का लड्डू खा लिया तो,
मम्मी-पापा तो बड़ा इसू नहीं है
पर पता चला चंद दिनों में
आपके लड्डू में ही कीड़े निकल आते है।
बस यही तो कहानी है सादी के पहले के लड्डू की
‘‘जो खुद की पसंद से खाए वो पछताए
जो मम्मी पापा के पसंद से खाए वो भी पछताएं‘‘
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Pehle khakar dekho fir baat karo.. ha ha ha ha