बिहार को खुद अपना माडल विकसित करना होगा
अनूप दुबोलिया
अप्रत्याशित चुनावी नतीजों के बाद बिहार की सत्ता पर फिरसे काबिज हुई नीतीश कुमार सरकार के सामने अब ज्यादा चुनौतियां है। चुनावी नतीजों के बाद विश्लेषकों और राजनैतिक पंडितो ने नीतीश द्वारा बदली गई बिहार की तस्वीर को अपने चश्में से देखना शुरू कर दिया है। विकास के पैरोकार विकास की वास्तविक अवधारणा को नकारते हुए एक नया राग आलापना शुरू कर रहे है। इनमें से ज्यादातर बिहार के विकास को लेकर कारपोरेट इंडिया के दखल की जोरदार वकालत भी कर रहे है। हमें यहां यह समझना होगा कि बिहार में सबसे बड़ी पूंजी मानव संशाधन की है। वहां रोजगार की और खनिज की बेहद कमीं है। बिहार का ट्रेक रिकार्ड विकसित राज्यों के टेªक रिकार्ड से बिलकुल अलग है। आंध्र प्रदेश तमिलनाडू की बात हो या फिर पंजाब एवं हरियाणा की बिहार की मौजूदा और भावी तस्वीर इनसे बिलकुल मेल नहीं खाती। हम यह मान सकते है कि अभी बिहार माइनस से जीरो पर पहूंचा है अब उसे जीरो से ऊपर उठना है। फिलवक्त वहां सबसे ज्यादा जरूरत तकनीकी शिक्षण संस्थानों की है। वहां अपराध के राजनीतिकरण ने सबकुछ बदलकर रख दिया था। नीतीश ने जैसे तैसे कानून व्यवस्था एवं शांति की स्थिति को बहाल करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाया। लालू राज में जहां बिहार की विकासदर 3.5 थी वहीं नीतीश के राज में यह बढ़कर 10.4 फीसद पर पहुंच गई। विकास पर 40 फीसद से ज्यादा खर्च भी हुआ। महिलाओं के आरक्षण से लेकर सड़क अस्पताल और बिजली जैसी बुनियादी जरूरतो पर नीतीश ने बहुत ज्यादा काम किया। आकड़े बतातें है लालू राज में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रो में प्रति माह 39 मरीज आते थे। नीतीश ने यह आकड़ा 10 गुना से ज्यादा करने में रत्ती भर कसर नहीं की। अब वहां देर रात तक महिलाएं और युवतिंया बाजार जाने में घबराती नहीं है। अपहरण उद्योग पर नीतीश ने जबरदस्त तरीके से अंकुश लगाया। इतना सब कुछ करने के बाद छद्म विकास के पैरोकार नीतीश को चंद्रबाबू बनाने के सपने संजोने लगे हैं। उन्हे ऐसा करने से इसलिए बचना होगा कि चंद्रबाबू और नीतीश की आइडियोलॉजी एवं दोनो प्रदेशो के हालातों में बेहद फासला है। बिहार को हाइटेक बनाने की बजाय बुनियादी बदलाव की सख्त जरूरत है। वहां मौजूद मानव संसाधनरूपी पूंजी के समुचित नियोजन के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास करना जरूरी है। इसके बाद शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव की महती जरूरत है। इन सबके बाद ही हम नीतीश को नीतीश बने रहने देना चाहे इसी में बिहार की भलाई है क्योंकि चंद्रबाबू के विकास का मॉडल पूरी तरह फेल हुआ था। यदि ऐसा नहीं होता तो आंध्रप्रदेश की जनता चंद्रबाबू को अस्वीकार नहीं करती। यह भी स्पष्ट है कि देश के मौजूदा सियासी नक्शे में चंद्रबाबू की अब धुंधली तस्वीर भी नजर नहीं आती।
देश के प्रख्यात राजनैतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव ने भी कुछ यही राय मीडिया के माध्यम से सामने रखी है। उनके अलावा प्रख्यात विचारक और चिंतक शेवल गुप्ता ने इनसे कुछ अलग मशवरा दिया है। कुल मिलाकर जिस अंदाज में नीतीश ने बिहारियों के दिल में और घर-घर में अपनी जगह बनाई है, उन्हे बिहार वासियों की इन्ही अपेक्षाओं को खासी तवज्जो देनी होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, चिंतक, विचारक एवं राजनैतिक विश्लेषक है)
अनूप दुबोलिया
अप्रत्याशित चुनावी नतीजों के बाद बिहार की सत्ता पर फिरसे काबिज हुई नीतीश कुमार सरकार के सामने अब ज्यादा चुनौतियां है। चुनावी नतीजों के बाद विश्लेषकों और राजनैतिक पंडितो ने नीतीश द्वारा बदली गई बिहार की तस्वीर को अपने चश्में से देखना शुरू कर दिया है। विकास के पैरोकार विकास की वास्तविक अवधारणा को नकारते हुए एक नया राग आलापना शुरू कर रहे है। इनमें से ज्यादातर बिहार के विकास को लेकर कारपोरेट इंडिया के दखल की जोरदार वकालत भी कर रहे है। हमें यहां यह समझना होगा कि बिहार में सबसे बड़ी पूंजी मानव संशाधन की है। वहां रोजगार की और खनिज की बेहद कमीं है। बिहार का ट्रेक रिकार्ड विकसित राज्यों के टेªक रिकार्ड से बिलकुल अलग है। आंध्र प्रदेश तमिलनाडू की बात हो या फिर पंजाब एवं हरियाणा की बिहार की मौजूदा और भावी तस्वीर इनसे बिलकुल मेल नहीं खाती। हम यह मान सकते है कि अभी बिहार माइनस से जीरो पर पहूंचा है अब उसे जीरो से ऊपर उठना है। फिलवक्त वहां सबसे ज्यादा जरूरत तकनीकी शिक्षण संस्थानों की है। वहां अपराध के राजनीतिकरण ने सबकुछ बदलकर रख दिया था। नीतीश ने जैसे तैसे कानून व्यवस्था एवं शांति की स्थिति को बहाल करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाया। लालू राज में जहां बिहार की विकासदर 3.5 थी वहीं नीतीश के राज में यह बढ़कर 10.4 फीसद पर पहुंच गई। विकास पर 40 फीसद से ज्यादा खर्च भी हुआ। महिलाओं के आरक्षण से लेकर सड़क अस्पताल और बिजली जैसी बुनियादी जरूरतो पर नीतीश ने बहुत ज्यादा काम किया। आकड़े बतातें है लालू राज में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रो में प्रति माह 39 मरीज आते थे। नीतीश ने यह आकड़ा 10 गुना से ज्यादा करने में रत्ती भर कसर नहीं की। अब वहां देर रात तक महिलाएं और युवतिंया बाजार जाने में घबराती नहीं है। अपहरण उद्योग पर नीतीश ने जबरदस्त तरीके से अंकुश लगाया। इतना सब कुछ करने के बाद छद्म विकास के पैरोकार नीतीश को चंद्रबाबू बनाने के सपने संजोने लगे हैं। उन्हे ऐसा करने से इसलिए बचना होगा कि चंद्रबाबू और नीतीश की आइडियोलॉजी एवं दोनो प्रदेशो के हालातों में बेहद फासला है। बिहार को हाइटेक बनाने की बजाय बुनियादी बदलाव की सख्त जरूरत है। वहां मौजूद मानव संसाधनरूपी पूंजी के समुचित नियोजन के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास करना जरूरी है। इसके बाद शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव की महती जरूरत है। इन सबके बाद ही हम नीतीश को नीतीश बने रहने देना चाहे इसी में बिहार की भलाई है क्योंकि चंद्रबाबू के विकास का मॉडल पूरी तरह फेल हुआ था। यदि ऐसा नहीं होता तो आंध्रप्रदेश की जनता चंद्रबाबू को अस्वीकार नहीं करती। यह भी स्पष्ट है कि देश के मौजूदा सियासी नक्शे में चंद्रबाबू की अब धुंधली तस्वीर भी नजर नहीं आती।
देश के प्रख्यात राजनैतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव ने भी कुछ यही राय मीडिया के माध्यम से सामने रखी है। उनके अलावा प्रख्यात विचारक और चिंतक शेवल गुप्ता ने इनसे कुछ अलग मशवरा दिया है। कुल मिलाकर जिस अंदाज में नीतीश ने बिहारियों के दिल में और घर-घर में अपनी जगह बनाई है, उन्हे बिहार वासियों की इन्ही अपेक्षाओं को खासी तवज्जो देनी होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, चिंतक, विचारक एवं राजनैतिक विश्लेषक है)
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