‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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क्या आजादी के 63 वर्ष बीत जाने के बावजूद कश्मीर में झण्डा फहराने के लिए ''परमिशन'', ''मिशन'' या ''विजन'' की आवश्यकता है?

2 comments
प्रादेशिक जनमत, दैनिक मत मतांतर,
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भारतीय जनता पार्टी के युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुराग ठाकुर द्वारा 26 जनवरी 2011 को कश्मीर में लाल चौक पर झण्डा फहराने की घोषणा पर देश के कुछ राजनीतिज्ञो की प्रतिक्रियाओं से न केवल मैं एक भारतीय नागरिक होने की हैसियत से क्षुब्ध हूं बल्कि मेरा सिर भी शर्म से झुक गया है। उससे भी ज्यादा शर्मसार इसलिए हूं कि पूर्व केंद्रीयमंत्री शरद यादव द्वारा इस मामले में दी गई प्रतिक्रिया से आहत हुआ हूं। ये वे शरद यादव है जो कि (एक समय हवाला काण्ड में यदि उनका नाम नहीं होता) शायद देश के प्रधानमंत्री होते। इनके अलावा जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला जो अब्दुल्ला परिवार से तीसरी पीढ़ी के है और मुख्यमंत्री है, की प्रतिक्रिओ पर भारत राष्ट्र में कोई क्षेाभ की लहर उत्पन्न नहीं हुई।
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विचारणीय पहलू यह है कि 26 जनवरी 2011 को राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिए हमें क्यों घोषणा करना पड़े? हमें एक राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाकर कोलकत्ता से जम्मू काश्मीर की पैदल यात्रा करने की योजना क्यों बनानी पड़े? देश के किसी भी कोने में किसी भी नागरिक को राष्ट्रीय ध्वज फहराने का संवैधानिक अधिकार राष्ट्रीय ध्वज अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत प्राप्त है। इसलिए जब हम 'स्वतंत्रता दिवस' या 'गणतंत्र दिवस' मनाते है तो स्वभाविक रूप से देश के प्रत्येक नागरिक के मन में यह भावना कम से कम उस दिन तो उठती ही है कि हम जहां पर रहते है वहां पर राष्ट्रीय ध्वज फहराते वक्त न केवल राष्ट्रभक्ति की भावना को व्यक्त करें बल्कि स्वयं को गौरवान्वित भी महसूस करें। यह भावना कश्मीर के प्रत्येक भारतीय के मन में है और होना भी चाहिए। इसके लिए हमें पृथक से कार्यक्रम करने की आवश्यकता क्यों होनी चाहिए? लेकिन यदि वास्तविकता यही है तो वहां स्वस्थ, भयमुक्त वातावरण नहीं है, आतंकवाद के खौफ के साये में लोग जी रहे हैं। इसके कारण एक मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की युवा इकाई के राष्ट्रीय अध्यक्ष को 26 जनवरी 2011 को लाल चौक पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने की घोषणा करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। इसमें कौनसी संवैधानिक व्यवस्था भंग हो रही है? या अराजकता फैल रहीं है, जिसके लिए जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को शांति भंग होने की आड़ में उक्त घोषणा के विरोध में बयान देना पड़ा। इतना ही नहीं एन.डी.ए. के संयोजक शरद यादव को मुख्यमंत्री के बयान के समर्थन में आगे आना पड़ा। स्वयं केन्द्रीय मंत्री डॉ. फारूख अब्दुल्ला जो कि उमर अब्दुल्ला के पिताश्री एवं पूर्व में जम्मू-कश्मीर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके है ने भी उमर अब्दुल्ला के समर्थन में बयान दिया है। प्रश्न यह है कि राष्ट्रीय गौरव के दिवस पर भी हम झण्डा फहराने के लिए एक याचक की मुद्रा में खड़े है। राष्ट्रीय दिवस पर राष्ट्रीय झण्डा फहराने की बात से शांति भंग होने की आशंका से ग्रसित हों। कश्मीर में करीब 4 दशक से अधिक अवधि तक शासन करने वाले अब्दुल्ला परिवार के सपूत मुख्यमंत्री के मन में शांति भंग होने की भावना पैदा होती है। इससे यह बात तो सिद्ध होती है कि हम अधिकारिक रूप से, (जब एक निर्वाचित मुख्यमंत्री कह रहा है) यह बात हम स्वीकार कर रहे है कि कश्मीर में हमारा शासन नहीं है। हमारे अंदर भारतीयता की भावना की कमीं है, या हमारे सुरक्षा बल इतने कमजोर है कि वे राष्ट्रीयता को अपमानित करने वाले किसी भी कदम को कुचलने में सक्षम नहीं है। क्या कश्मीर भारत का अंग नहीं है? जैसा कि पाकिस्तान से लेकर दूसरे देश और यूएनओ तक में हमारे विरोधी देश यह प्रचार करते आ रहे है। श्री अनुराग ठाकुर की घोषणा के विरूद्ध उक्त समस्त बयान देश विरोधी बयानों का ही न केवल प्रचार कर रहे है बल्कि उसको हवा भी दे रहे है। क्या यह 'देशद्रोहÓ अपराध की परिधि में नहीं आता है? क्या इसे अपराध परिभाषित करने के लिए भी सरकार को विधि विशेषज्ञों की संवैधानिक सलाह लेनी पड़ेगी? यदि यह स्पष्ट रूप से ''देशद्रोह'' की परिभाषा में आ रहा है तो क्या एक 'देशद्रोहीÓ का भारत के एक प्रदेश का मुख्यमंत्री बने रहना एक गैर संवैधानिक कार्य नहीं है? जिसके लिए क्या केंद्रीय सरकार जिम्मेदार नहीं? इस कारण एनडीए के संयोजक के रूप में शरद यादव की भूंमिका को कहां तक उचित ठहराया जा सकता है। शरद यादव की इस बात को भाजपा जैसी राष्ट्रवादी पार्टी जो एनडीए का प्रमुख घटक है, स्वीकार कर सकती है। क्योंकि भाजपा के ही एक प्रमुख अंग युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुराग ठाकुर ने उक्त कार्यक्रम की घोषणा की है जिसके विरोध में हुई प्रतिक्रिया के कारण ही मैं यह लेख लिखने के लिए मजबूर हुआ हूं।
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शरद यादव इस देश की राजनीति में आए भूचाल के कारण उस वक्त युवा नेतृत्व की बागडोर सम्भाल रहे थे। उस वक्त वे जे.पी. आंदोलन के प्रथम प्रतिनिधी के रूप में लोकसभा के सांसद चुने जाकर लोकतांत्रिक और प्रजातांत्रिक अत्याचार के विरोध के प्रतीक बने और उस रूप में उन्होने जनता का विश्वास अर्जित किया था। लेकिन हाल ही में शरद यादव के कुछ विवादास्पद बयानों (बिहार चुनाव में राहुल गांधी के संबंध आदि में) के कारण स्वयं के द्वारा स्थापित मूल्यों की रक्षा नहीं कर पाये और उसी दिशा में यह बयान उन्हे नकारात्मक छवि प्रदान कर रहा है।
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                    यदि वास्तव में कश्मीर की परिस्थिति ऐसी है जिस कारण से मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को उक्त बयान देना पड़ा तो हमें यह सोचने पर मजबूर नहीं करती है, कि हम प्रत्येक भारतीय कश्मीर घाटी में जाकर देशप्रेम एकता, अखण्डता की भावना व जज्बे को इतनी मजबूत कर दें कि वह भी भारत का वैसे ही प्रदेश बन जाये जैसे अन्य प्रदेश है। हम जब कश्मीर की बात करें तो किसी भी व्यक्ति के मन में असहजता की भावना उत्पन्न न हो। यदि वास्तव में हम यह स्थिति वहां पैदा कर दें तो ही हमारा वहा अगला गणतंत्र मनाने का उद्वेश्य सफल होगा।

2 Responses so far.

  1. aapse sahmat hoon,

    kashmir bharat ka hi hissa hai aur humesha rahega, is par prashn nahin uthta ki jhanda fahrane ke liye aandolan ya putle jalaye jaayen,

  2. Anonymous says:

    sach kaha aapne

 
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