घर से चले थे घर का पता साथ लेके हम !
चल पड़े थे काफिले संग दूर तलख हम !
मिलते भी रहें राही बदल बदल के राह मै ,
रुकते भी गये अपने काफिले के संग हम !
अपनी अपनी मंजिल पर मुसाफिर ठहर गये ,
और दूर तलख सब किनारों मै खो गये !
मंजिल पर अब अकेले से हो गये थे हम !
राहें थी अलग -अलग कहीं खो गये थे हम !
फिर हाथ पकड़ कर किसी ने थाम तो लिया ,
पता तो था अलग सा पर आराम सा लगा !
अब दिल की खवाइशों को सुकूं सा मिला !
जैसे किसी नदी को सागर का पता मिला !
अब अपनी राह पर फिर चल पड़े हैं हम !
अब तो सफ़र तन्हां ही तय करने लगे है हम !
क्युकी हम जान गये साथ न कोई आया था !
और जानतें हैं की साथ न अब कोई जायेगा !
गहन भाव ..सुन्दर रचना ..
बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति....
आप सबका शुक्रिया दोस्तों !
अब तो सफ़र तन्हां ही तय करने लगे है हम !
क्युकी हम जान गये साथ न कोई आया था !
और जानतें हैं की साथ न अब कोई जायेगा !...
शास्वत सत्य...बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..
क्युकी हम जान गये साथ न कोई आया था !
और जानतें हैं की साथ न अब कोई जायेगा !
यही है जीवन का अकाट्य सत्य .....
सुंदर भावाभिव्यक्ति....