इक्सीसवी सदी के प्रथम दशक के अंतिम वर्ष की ओर हम बाद रहे हैं। फिर भी एक यक्ष प्रश्न हम सबके सामने हैं। विकास का पैमाना किसे माना जायें ? क्या हो विकास कि सही परिभाषा , जिसके आधार पर हम कह सकें कि हम कहॉं तक पहॅुंचे ? आगे हमें कहॉं जाना हैं ? विज्ञान की प्रगति के चरम शिखर के इस युग में मानव जाति के समग्र उत्कर्ष की परिभाषा तक तय नहीं कर पाये, तो आपको अजीब सा लगेगा। कि शायद इन्हें दिखाई नहीं देता। मॅंहगाई भले ही अभी नये आयाम पार कर उत्कर्ष तक छलांग लगा रही हैं। बड़े बड़े शहर फ्लाय ओवर सुपर स्टोर मेट्रो बड़ी बड़ी बिल्डिगों का भवन निर्माण क्या इन्हें दिखाई नहीं देता ? सड़कों पर दौड़ती आलीशान कारें नहीं दिखाई देती हैं ? हमें सब दिखाई देता हैं । पर क्या करें विकास की परिभाषा तय किये बिना हम कैसे कहें कि यही सच्चा विकास हैं। यदि यहीं विकास हैं। तो मानसिक रूप से अशांत होकर ढेरों व्यक्ति क्यों आत्महत्या कर रहे हैं। मनोविकारों एवं नये असाध्य रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों की संख्या क्यों बढ़ती जा रही हैं। बढ़ती समृद्धि के साथ परिवार क्यों टूट रहे हैं। पश्चिम में भौतिकवाद की ऑंधी थमती सी दिखाई दे रही हैं। वहीं लोग भारतीय संस्कृति योग, अध्यात्म एवं शांति का मार्ग पकड़ते दिखाई दे रहे हैं। पर क्या कारण हैं कि हम भारतवासी आत्मघाती भौतिकवाद, पाश्चात्यवादी क्षणिक सुख वाले उपभोक्तावाद में लिप्त होते जा रहे हैं ? क्या यही विकास का पैमाना बनेगा। कि नये डिस्को थीक कितने बने, कितने अंग्रेजी भाषा में पढ़ने वाले स्कूल कॉलेज बढ़े, डोनेशन पर आधारित अच्छी अच्छी युनीफार्म पहनने वाले छात्र छात्राओं से भरे मेडिकल, इंजीनियरिंग कॉलेज मैनेजमंेट संस्थान अधिक बढ़ते चले जा रहे हैं, भ्रष्टाचार के साक्षात नमूने इन संस्थानों की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ती जा रही हैं। क्या इसी को प्रगति का आधार माना जावें ? देश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, कृषि योग्य सिंचित भूमि जो फसलों के रूप में सोना उगलती थी क्रमशः सिकुड़ती जा रही हैं। ये किसान अपनी भूमि बेचकर करोड़पति तो बन रहे हैं पर जीवन विद्या के अभाव में सब कुछ शीघ्र ही लुटाकर शराब में लिप्त हो जीवन बर्बाद करते हुए देखे जा रहे हैं गॉंव उजड़ रहे हैं। युवा प्रतिभावान वहॉं से पलायन कर रहे हैं, तथा शहरों की ओर जा रहे हैं। ऐसे ग्रामीण बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही हैं जो अब कस्बों शहरों में रहकर नकारा बन रहे हैं । हमारी गायों का कटना जारी हैं। हमारे धर्म में जिसे जन्मदात्री मॉं से भी बड़ा दर्जा दिया गया हैं जो सर्वकल्याणकारी, मंगलकारी हैं, उसका मॉंस विदेशों को निर्यात किया जा रहा हैं, फैशन हेतु सामान के निर्माण हेतु गाय के बछड़ों का वध किया जा रहा हैं। क्या इसे प्रगति कहा जायेगा ? आज हमारी सोच वह हैं या बन गई हैं जो हमें समाचार पत्र या इलेक्ट्रानिक मीडिया बताता हैं सभी चैनलोें को राजनीतिज्ञों को दिखाने सिनेमा के कलाकारों के मंनोरंजन एवं खेलों का प्रदर्शन करने से ही फुरसत नही तो क्या समझेंगे कि देश में क्या हो रहा हैं ? विकास के नाम पर हमारी सांस्कृतिक जड़ों को काटा जा रहा हैं। भले ही समृद्धि का तथा कथित हरा भरा वृक्ष कभी भी गिर जाय, सारे रास्ते अब शहरों की ओर जाते हैं महानगरों की ओर जाते हैं वहीं सुख हैं, वहीं सपने हैं, वही सब कुछ हैं और वहीं हम सबके आराध्य हैं इष्ट मित्र हैं । यही सोच हमारी आज बना दी गई हैं। हम भी नादान हैं आम भारतीय की सोच भी वहीं बन गई हैं, एवं यहीं कारण हैं कि हमें इस विकास के पीछे छिपा विनाश दिखाई दे रहा हैं। प्राकृतिक आपदा आई नहीं बल्कि हमने निमंत्रण देकर बुलाई हैं रेगिस्तान बने नहीं हमने बनाये हैं, नदियॉं सूखी नहीं, अपितु सुखाई गई हैं। जमीन की गहराई में भू गर्भ में छिपा जल तो हमारे प्राणों का स्त्रोत हुआ करता था, हमने खीच खीचकर समाप्त कर दिया हैं। अगला विश्व युद्ध पानी पर हो तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये। आज ग्लोबल वार्मिग जलवायु परिवर्तन इन विषयों पर विश्व भर में चर्चा हैं। सारे वन प्रदेश वनों से रहित हो रहे हैं, वन्य प्राणी घोर संकट के दौर से गुजर रहे हैं। क्या यही प्रगति हैं ? तो क्या हम रोना ही रोते रहे ? हमें आज विकास की नई परिभाषा गढने की आवश्यकता हैं।
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राष्ट्र के सर्वांगिण विकास को समर्पित व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, विकास के जिसमें तत्व छिपे हों ऐसा पुरूषार्थ हो शिक्षा और विद्या को जो जोड़े एवं सुसंस्कारित व्यक्तित्व बनाये, वह विकास हमें चाहिए जो गौ माता का वध रोककर उनका वंश बढ़ाने की गौ आधारित कृषि एवं जीवन शैली विकसित करें वह विकास हमें चाहिये। योग को जो हमारे जीवन जीने कि विद्या के रूप में हर श्वास में स्थापित करें। वह विकास हमें चाहियें। जो हमारे परिवारों को तोडे नहीं जोड़े, हमारे वृद्धजनों, बुजुर्गों का सम्मान करना हमें सिखायें वह विकास हमें चाहिये। अब यह कैसे हो विकास तो इसके लिए नूतन परिभाषा को अपनी व्यवस्था को, जीवन शैली को बदलना होगा। क्या क्षणिक लाभ का आकर्षण छोड़ दूरगामी हित वाला विवेक धारण कर सकते हैं ? बहुत छलावे में जी चुके हैं, अस्थाई आराम देनेवाला जीवन जी चुकें। क्या बची जिन्दगी में कुछ क्रांतिकारी बदलाव ला सकते हैं ? यह प्रश्न हमें अपने आप से पूछना हैं और युगानुमूल समाधान की खोज के लिए तत्पर होना हैं।
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