वेसे ये नई बात नहीं ये तो रोज़ का ही नज़ारा हैं !
हर किसी अख़बार के इक नए पन्ने मैं ...
आरुशी जेसी मासूम का कोई न कोई हत्यारा है !
पर लगता है आरुशी के साथ मिलकर सभी मासूमों ने
एक बार फिर से इंसाफ को पुकारा है !
क्या छुपा है इन अपलक निहारती आँखों मैं ,
ये कीससे गुहार लगाती है ?
खुद का इंसाफ ये चाहती है ?
या माँ - बाप को बचाना चाहती है ?
उसने तो दुनिया देखि भी नहीं ,
फिर कीससे आस लगाती है !
जीते जी उसकी किसी ने न सुनी ,
मरकर अब वो किसको अपना बतलाती है !
गुडिया ये रंग बदलती दुनिया है !
इसमें कोई न अपना है !
तू क्यु इक बार मर कर भी ...
एसे मर - मर के जीती है !
यहाँ एहसास के नाम पर कुछ भी नहीं ,
मतलब की दुनिया बस बसती है !
न कोई अपना न ही पराया है
लगता है हाड - मांस की ही बस ये काया है !
जिसमें प्यार शब्द का एहसास नहीं !
किसी के सवाल का कोई जवाब नहीं !
तू अब भी परेशान सी रहती होगी ?
लगता है इंसाफ के लिए रूह तडपती होगी !
अरे तेरी दुनिया इससे सुन्दर होगी ?
मत रो तू एसे अपनों को !
तेरी गुहार हर मुमकिन पूरी होगी !
तेरे साथ सारा ये जमाना है !
कोई सुने न सुने सारी दुनिया की ...जुबान मै
सिर्फ और सिर्फ तेरा ही फसाना है !
कड़वी हकीकत, लेकिन समाज को बदलने की ज़रूरत है. तभी हालात बदलेंगे. आपकी यह कविता वाकई दिल को झकझोरती है. आभार.
ईश्वर आरुषि की आत्मा को शान्ति दें!
बहुत मार्मिक प्रस्तुति..
We should be painstaking and fussy in all the intelligence we give. We should be extraordinarily careful in giving guidance that we would not about of following ourselves. Most of all, we ought to refrain from giving advisor which we dont tag along when it damages those who woo assume us at our word.
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