‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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शत्-शत् नमन वंदन: अन्ना हजारे

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दूसरो पर पथ्थर फेंकने से पहले जरा अपने भी झांक कर देखो यारों।



'भारत' क्रांति और क्रांतिकारियों का देश रहा है वर्ष 1857 में देश में प्रथम क्रांति का आगाज हुआ था जो गदर आंदोलन के नाम से जाना गया। तत्पश्चात् स्वतंत्रता के पूर्व असहयोग आंदोलन से लेकर कई आंदोलन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व से लेकर सुभाष चंद्र बोस, शहीद भगत सिंह जैसे लोगो के नेतृत्व में चलें जिसकी परिणीति अंतत: 15 अगस्त 1947 को भारत की स्वाधीनता के रूप में प्राप्त हुई। स्वतंत्र भारत के इतिहास में वर्ष 1974 में देश में जो आंदोलन छात्रों व युवाशक्ति ने जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में प्रारम्भ किया उसे स्वतंत्र भारत की प्रथम क्रांति कहा गया। तत्समय की शक्तिशाली प्रधानमंत्री (जिसे भारत पाक के 1971 के युद्ध के पश्चात देवी दुर्गा कहा गया था) ने सत्ता की ताकत का दुरूपयोग कर आपातकाल लागूकर देश के लोकतंत्र की आत्मा को खत्म करने का असफल प्रयास किया। जिसकी परिणीति अंतत: जनता द्वारा तत्कालीन सरकार को उखाडऩे में हुई तब श्री जयप्रकाश नारायण को दूसरे गांधी की संज्ञा दी गई थी। वैसे बलुचिस्तान के नेता खान अब्दुल गफ्फ ार खान की भी महात्मा गांधी से तुलना करते समय उनको भी सीमांत गांधी कहा गया था। बहुचर्चित सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के आमरण अनशन पर बैठने की घोषणा के मात्र तीन दिनों के भीतर ही पूरे देश में जिस तरह की प्रतिक्रिया व सद्भावना तथा छोभ की एकसाथ लहर फैली उसे देखकर इसकी तुलना जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से की जाने लगी जैसा कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा की स्थितियां 1975 जैसी ही है।
............ 'भ्रष्टाचार' कोई नया मुद्दा नहीं है। शताब्दियों से चला आ रहा एक ऐसा रोग है जो 'व्यवस्था' को घुन लगाकर कमजोर करते चला आया है। लेकिन हाल के ही वर्षो में खासकर यूपीए सरकार के द्वितीय कार्य काल में जिस तरह से भ्रष्टाचार सैकड़ो और हजारों करोड़ो से आगे बढ़कर लाखो कराड़ो में एक नही कई-कई घोटालो में गूज रहा है जिसकी गूंज प्रत्येक मानव मन पटल पर हो रही है। तब ऐसे वक्त पर अन्ना हजारे द्वारा उठाया गया कदम जनता के मन में तेजी से असर कर गया और वह उनके पीछे खड़ी होती नजर आ रही है और 'कारवॉ' बढ़ता जा रहा है। इस तरह स्पष्ट है कि अन्ना हजारे ने सरकार के उपर इतना नैतिक बल स्वयं का और जनता के बल का पैदा कर दिया कि अंतत: सरकार को उनके सामने झुकना पड़ा और उनकी पांच में तीन महत्वपूर्ण मांगे स्वीकार करने से 'जन लोकपाल विधेयक' को कानून बनाने का रास्ता खुलने का मार्ग प्रशस्त होता जा रहा है। यद्यपि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर समस्त राजनैतिक पार्टिया, संस्थायें और आम नागरिक एकमत है कि हमारा राजनैतिक, सामाजिक व व्यक्तिगत जीवन भ्रष्टाचार विहीन होना चाहिए। लेकिन मात्र यह एक ''सिद्धांत'' ही रह गया है। प्रश्न यह है कि भ्रष्टाचार उत्पन्न कैसे होता है? हमारे अपनेे बीच के लोगो में से ही दो व्यक्ति खड़े होते है जिसमें से एक व्यक्ति भ्रष्ट आचरण की मांग करता है और दूसरा उसकी पूर्ति करता है और इस प्रकार भ्रष्टाचार पैदा हो जाता है। अत: प्रश्न मात्र सिर्फ  भ्रष्टाचार रोकना या भ्रष्टचार को समाप्त करना ही नहीं है बल्कि उस मानसिकता को बदलना है जो भ्रष्टाचार पैदा करता है। 
............... बात सरकार द्वारा अन्ना हजारे की तीन प्रमुख मांग मानने के बावजूद शेष दो मांगो पर अन्ना हजारे के समर्थको के अड़े रहने की है। शेष जो दो मांगे है एक अन्ना हजारे को लोकपाल बिल का निर्माण करने वाले समिति का अध्यक्ष बनाया जाए। दूसरी समिति की मंत्री द्वारा घोषणा के बजाय केन्द्रीय सरकार द्वारा गजट में उसकी अधिसूचना जारी की जाए। जहां तक समिति के अध्यक्ष का सवाल है खुद अन्ना हजारे ने इसके लिए मना किया है। लेकिन उनके सहयोगी स्वामी अग्निवेश व अनिल केजरीवाल ने जो बयान दिये है उसमें उन्होने दूसरे किसी व्यक्ति के अध्यक्ष बनाने की मांग की है। जब एक न्यूज चैनल के पत्रकार ने स्वांमी अग्निवेश से यह पूछा कि लोकतंत्र में एक चुनी हुई सरकार है तो कानून बनाने का काम उस सरकार का है और कमेटी का अध्यक्ष कोई उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश क्यों नहीं हो सकता तब उन्होने जो जवाब दिया वह न केवल विचारणीय और चिंतनीय है बल्कि उसमें ही यह परिणाम भी छुपा है कि वास्तव में यह आंदोलन देश को किस दिशा की ओर ले जाएगा। स्वांमी अग्निवेश का यह कथन कि लोकतंत्र जब लोगो की इच्छा के अनुसार काम नहीं करता है तब जनता को आगे आना होता है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के प्रश्न पर अनिल केजरीवाल ने कहा- शांतिभूषण, प्रशांत भूषण से लेकर कई नामाचीन व्यक्ति इसके अध्यक्ष हो सकते हैं पर सरकार के किसी भी भाग के किसी व्यक्ति को इसका अध्यक्ष बनाया जाए हमे स्वीकार नहीं है1 न्यायपालिका सरकार का भाग नहीं है बल्कि वह तो आजकल स्वयं सरकार को नियंत्रित कर रहीं है। ''न्यायिक सक्रियता'' की चर्चा आज हर जगह है। यह वही न्यायपालिका है जिसका सहारा लेकर स्वयं स्वामी अग्निवेश ने कई लोकहित याचिका दाखिल कर आवश्यक निर्देश दिलाये। फिर वह चाहे बंधुआ मजदूर का मामला हो या कोई और। यद्यपि आज श्री केजरीवाल ने उच्चतम न्यायालय के रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश जी.एस. वर्मा एवं न्यायाधीश संतोष हेगड़े के नाम का प्रस्ताव किया है जिसे केंद्रीय सरकार को स्वीकार कर लेना चाहिए। 
.......................हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम एक व्यवस्था के अंतर्गत जी रहे है। हम लोकतंत्र में रह रहे है तो उसमें चुनी हुई सरकार ही जनता के प्रति उत्तरदायी होती है। उसकी यह जिम्मेदारी हैं कि वह जनहित में बिल लाये, कानून बनाये और पालन करवाये। लोकपाल बिल का बनाना सरकार का दायित्व है और जब सरकार इसमें असमर्थ हो जाए तो अन्ना हजारे जैसे व्यक्तित्व को इस तरह का कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। लोहिया कहते थे जिन्दा कौम पांच साल का इंतजार नहीं करती है। लेकिन जब हम किसी व्यवस्था के अंतर्गत काम करते है तो हमारे पास दो ही विकल्प होते है। या तो हम व्यवस्था को ही बदल दे या हम उस व्यवस्था को इतना मजबूर कर दे कि वह व्यवस्था खुद ही अपने कार्य करने की प्रकृति को बदल कर सुधार ले। यह एक उपयुक्त अवसर है जब अन्ना हजारे को इस बात की भी मांग करना चाहिए कि जनता को अपने प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार (राईट टू रिकॉल) होना चाहिए ताकि जो जन प्रतिनिधि काम न कर सके उन्हे जनता एवं संवैधानिक ढांचा द्वारा प्रदत्त कानूनी अधिकार के अधीन वापस बुलाया जा सके। लेकिन जब तक यह अधिकार संविधान का भाग नहीं बनता है तब तक हमारी जो व्यवस्था है उस व्यवस्था से ही काम लेना होगा। जब अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों ने जन लोकपाल विधेयक का मसौदा सरकार को दिया है और सरकार ने कहा है कि हम उसे अगले मानसून सत्र में लायेंगे तब विधेयक बनाने के लिये विधेयक निर्माण समिति की क्यों आवश्यकता है? और फिर उसमें अन्ना समर्थकों की 50 प्रतिशत भागिदारी क्यों आवश्यक है प्रश्न यह भी है। अनिल केजरीवाल का यह कथन अर्धसत्य है कि समिति गठन की मंत्री द्वारा घोषणा तब तक बेमानी है व महत्वहीन है जब तक केंद्रीय सरकार गजट द्वारा अधिसूचित नहीं करती है। यदि अन्ना हजारे व उनके सहयोगियों को सरकार की नीयत पर संदेह है, यह विश्वास नहीं है कि सरकार जो लोकपाल विधेयक का मसौदा लायेगी वह प्रस्तावित जन लोकपाल विधेयक के विचारो के अनुरूप होगा। तब वे उस समय भी आज जैसा कदम उठाकर सरकार पर वैसा ही दबाव बना सकते है जैसे आज बनाया है। वैसे केंद्रीय सरकार को उक्त मांग मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। लेकिन जब आपने पांच मांगे सरकार से मांगकर उनके स्वीकार करने की दशा में कानून बनाने के लिये सरकार पर अंतत: विश्वास करने का संकेत दिया है तब प्रस्तावित समिति में बराबरी की भागीदारी और अध्यक्ष पर जोर देना क्या इस बात का द्योतक नहीं है कि वे भी अंतत: सत्ता सुख में किसी न किसी रूप में भागीदार होना चाहते है क्योंकि सत्ता का आकर्षण बड़ा गहरा होता है। अन्ना हजारे व उनको मिल रहे देश के कोने कोने से आये समर्थन का अंतत: एक भाग मात्र उद्वेश्य लोकपाल कानून बनाकर भ्रष्टाचार पर शिकंजा कसना है फिर चाहे प्रक्रिया कोई भी हो उसके लिये सरकार को एक अवसर तो प्रदान करना ही पड़ेगा। जेपी आंदोलन की अंतत: उपलब्धि क्या हुई। जेपी आंदोलन से निकले लालू यादव और अन्य नेता आज भ्रष्टाचार के सिरमौर है। इसलिए प्रश्न सिर्फ  व्यवस्था को पलटने का नहीं है। प्रश्न यह है कि जो व्यवस्था है उसके के चारो तरफ जनता की आवाज की इतना अंकुश बना रहे कि वह कोई गलती करने का साहस ही न कर सके और जिस दिन इतना दबाव जनता का बन जायेगा तो व्यवस्था अपने आप सुधर जाएगी। तब व्यवस्था बदलने की आवश्यकता नहंी होंगी। क्योंकि कोई भी व्यक्ति और व्यवस्था पूर्णत: न तो सही होती और न ही पूर्णत: गलत। हम क्या व्यवस्था को सुधारना चाहते है या बदलना चाहते है। क्योंकि इस बात की कोई ग्यारंटी नहीं है कि बदली हुई व्यवस्था भी सही रास्ते पर चलेगी। लालू यादव का उदाहरण  हमारे पास है। जयप्रकाश की क्रांति से पैदा हुआ नेता आज किस बात का प्रतीक है पूरा देश जानता है।
...................अन्ना हजारे को इस बात का बहुत बड़ा श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि स्वाधीन भारत में यह प्रथम बार हुआ है जब चुनी हुई सरकार ने अपने ही अधिकार (कानून बनाने का अधिकार) जो  संविधान ने दिया है में उन लोगो की भागीदारी जिन्हे संविधान कोई अधिकार प्रदत्त नहीं करता है, देना स्वीकार किया है। इसे लोहिया के उक्त कथन कि- जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती है की भावना को मान्यता देने का एक प्रयास माना जा सकता है। जब मुद्दा सीधे जनता के सीधे हित से जुड़ा हो, जनता जिससे त्रृस्त हो चुकी हो। तब यदि कोई विवाद रहित प्रतिष्ठित अन्ना जैसे सामाजिक कार्यकर्ता उस मुद्दे को उठाता है तो तब बगैर किसी देशव्यापी संगठन के भी उसका प्रभाव पूरे देश के अधिकांश नागरिकों पर हो सकता है यह बात भी अन्ना हजारे ने सिद्ध की है।
........................ अन्ना हजारे की आज जयप्रकाश नारायण व महात्मा गांधी से तुलना की जा रही है1 निश्चित रूप से अहिंसात्मक रूप से अपने स्वयं के आत्मबल को मजबूत कर उक्त कृत गांधी जी की याद दिलाता है लेकिन गांधी जी ने साध्य की पवित्रता के साथ साध्य को प्राप्त करने के लिए साधन की सुचिता व पवित्रता पर भी उतना ही जोर दिया था जितना साध्य के लिए। इसलिए वे गांधी कहलाये यदि प्रारंभ में अन्ना हजारे के समर्थन में आगे आये जन संगठन व एंजीओ की ओर ध्यान दे तो कुछ एंजीओ किस तरह के है। उनके आय स्त्रोत किस तरह के है। एक आम नागरिक इस बात को जानता है (यह कोई आरोप नहीं है) स्त्रोत की पवित्रता का होना भी उतना ही अनिवार्य है।
........................ अत: वास्तविक प्रश्न जो अन्ना हजारे के इस अनशन से उत्पन्न हुआ कि वह क्या मुद्दो को उठाने के श्रेय का है या मुद्दो को सुलझाने का है। जब भ्रष्टाचार व विदेशों से कालाधन वापस लाने का मुद्दा पूरे जोर-शोर से कुछ दिनों पूर्व स्वामीं रामदेव ने उठाया और लाखो लोगो के हस्ताक्षर वाले ज्ञापन राष्टपति को सौंपा तो क्या उसमें एक हस्ताक्षर अन्ना हजारे जी के भी थे। न मुझे मालूम है और न ही जनता को मालूम है। आज जब अन्ना हजारे जी ने इसी मुददे को उठाकर पूरे राष्ट्र में एक लहर पैदा करदी है तो स्वामीं रामदेवजी का वैसा सक्रिय और सीधा सहयोग क्यों नहीं आया जैसा कि उन्होने अपने खुद के भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन के समय किया था। जिस प्रकार गायत्री परिवार ने सम्पूर्ण देश में स्थित अपने समस्त शक्ति केंद्रो को इस मुद्दे को सहयोग करने के निर्देश दिये है। उसी प्रकार के निर्देश क्या बाबा रामदेव जी ने भी अपने पतंजली योग समिति एवं स्वाभिमान ट्रस्ट की समस्त इकाईयों को निर्देश दिये है। आज भी भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई के मुद्दे पर प्रत्येक व्यक्ति की सहमति है। बावजूद लड़ाई मुद्दे को सुलझाने की नहीं मुद्दा उठाने के श्रेय को लेकर है। जिस दिन देश में 'श्रेय' की राजनीति समाप्त होकर मुद्दा सुलझाने की नीति हो जाएगी उस दिन इस देश में शायद कोई समस्या ही नहीं होगी। अत: आईये हम अपना आत्मावलोकन करें और अपने मन को भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई लडऩे में मजबूत करें। क्योंकि जिस दिन भ्रष्टचार के मुद्दे पर देश के प्रत्येक नागरिक ने अपने मन को अपने विचार के अनुरूप दृढ़ता प्रदान कर दी उस दिन फिर शायद लोकपाल बिल लाने की आवश्यकता भी नहीं होगी। उस दिन अन्ना हजारे जैसे व्यक्ति को अपने जीवन को दाव पर लगाने की आवश्यकता भी नहीं होगी जिससे आज समूचा देश चिंतित है।  अंत में आज धरना स्थल पर टॉम अल्टर द्वारा पढ़ा गया यह कथन बड़ा महत्वपूर्ण है दूसरो पर पथ्थर फेंकने से पहले जरा अपने भी झांक कर देखो यारों।

5 Responses so far.

  1. जनता का साथ मिला!
    जीत हुई लोकतन्त्र की!

  2. जनता को एक निस्वार्थ नेता मिला तो उसने उसका साथ देने में कोई कमी नहीं की. बधाई समस्त जनता को !

  3. ZEAL says:

    धरती इमानदारों से खाली नहीं है अभी ।

  4. सिर्फ एक सही कदम उठाने की ही तो देर होती है जिसे हम सिर्फ सोचने में खत्म कर देते हैं और वही हिम्मत अन्ना जी ने कर दिखाया , चाहता तो हर कोई है की हम एसा करें वैसा करें पर हिम्मत कोई - कोई की कर पाता हैं और जो करता है वही इतिहास में नाम कर जाता है | हम अन्ना जी के इस होंसले इस जज़्बे को प्रणाम करते हैं |

 
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