लोकनायक गांधी अन्ना हजारे ने जिस दिन भ्रष्टाचार के पुराने जकड़े हुए मुद्दे को जनलोकपाल विधेयक के माध्यम से सिकंजा कसने का जो प्रयास किया था तब भी न ही अन्ना हजारे की ये कल्पना थी और न ही प्रबुद्ध नागरिकों की यह कल्पना भी कि भ्रष्टचार इस देश से समाप्त हो जाएगा। लेकिन एक नई उम्मीद का संचार और चमक लोगो की आंखो में देखने को अवश्य मिली और महसूष हुई कि अन्ना हजारे जनलोकपाल विधेयक और अपने आत्मबल के तेज की शक्ति के आधार पर भ्रष्टाचार पर प्रभावी अंकुश जरूर लगा पाएंगे जो अंतत: भ्रष्टाचार को कम करने में सहायक होगा।
जिस दिन अन्ना हजारे सरकार द्वारा अपनी बात मान लेने के बाद नींबू पानी की चुस्कियों के साथ अपनी और अपने समर्थकों के चेहरे पर मुस्कान बिखेर रहे थे तब 'तंत्रÓ भी -हल्का सा सहमा हुआ लेकिन मंद और अर्थपूर्ण मुस्कान बिखेर रहा था। जिसको मैं भी उस दिन देख रहा था लेकिन तब परिस्थिति ऐसी थी कि उस 'तंत्रÓ के मुस्कान का कोई अन्य अर्थ लोगो के बीच लाया जाए यह सम्भव नहीं था। लेकिन आज जब अनशन के एक महीने दिन के बाद हम जो घटनाएं दिन-प्रतिदिन घटते हुए देख रहे है उससे मेरे मन कि उक्त भावनाओं को दृढ़ता मिली की 'तंत्रÓ उस दिन वास्तव में क्यों मुस्कुरा रहा था। सत्ता अंधी और मदहोस होती है और सत्ता के आकर्षण के हथियार से अच्छे-खासे 'तंत्रÓ को मजबूर किया जा सकता है। जिस दिन अन्ना हजारे अनशन पर बैठे और उनके साथ जमूरियत भी बैठने लगी। की सरकार ने उसके तात्कालिक प्रभाव को देखते हुए तत्त्काल अपने दो कदम पीछे खीचकर उस जमुरियत के कुप्रभाव से होने वाले अपने नुकसान को बचा लिया लेकिन तुरंत दूसरे दिन से ही सत्ता का गुरूर सरकार के दिमाग में फिर चढऩे लगा और कपित सिब्बल से लेकर दिग्विजय सिंग आदि विभिन्न नेताओं के बयान आने लगे इससे स्पष्ट हो गया कि सरकारी सत्ता ने अपना असली रूप दिखाना प्रारम्भ कर दिया और आज यह हाल कर दिया कि जो वास्तविक मुद्दा भ्रष्टाचार का था उससे जनता का ध्यान हटाकर सरकार इस बात में सफल हो गई कि नागरिक समिति के मेम्बर समिति में रहे या वे इस्तिफा दे और उनकी जगह दूसरा मेंबर हो। तब मैं यह देख रहा हूं कि वही 'तंत्रÓ कि मुस्कान में वो कुटिलता-सफलता भरी तेज दिखाई दे रहा है जो उसका एक प्राकृतिक गुण है। वास्तव में ''भ्रष्टाचार का तंत्रÓÓ इतना मजबूत है उसको हिलाने के लिए एक आदमी का तप पर्याप्त नहीं है। यह अनशन के बाद से आज वहा की घटित घटनाएं सिद्ध कर रही है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि नागरिक समिति ने अपना नैतिक समर्थन खो दिया है। जब प्रशांत भूषण और शांति भूषण पर गम्भीर आरोप लगाये गये। नागरिक समिति का यह आरोप सही है कि उक्त गम्भीर आरोप जो ६ वर्ष पूर्व के थे वे आज ही क्यों लगाये जा रहे है। लेकिन 'तंत्रÓ की यही तो विशेषता है कि उसके पास पड़े हथियारों का वह 'समयÓ पर ''सद्उपयोगÓÓ करना जानता है। 'तंत्रÓ यह भी जानता है कि सत्ता का आकर्षण इतना तीव्र होता है कि नागरिक समिति के आरोपित सदस्य इस्तिफा देकर उसके मुह पर तमाचा नहीं मार सकते है। स्वामीं अग्रिवेश का यह तर्क बेहद लचर है कि समय सीमा १५ अगस्त के पूर्व होने के बाद अब दूसरे सदस्य की नियुक्ति करना समय की कमी के कारण संम्भव नहीं है। नागरिक समिति के समस्त सदस्यों ने यह खुद स्वीकार किया कि प्रथम बैठक में प्रारूप पर कोई चर्चा नहीं हुई। अगली बैठक २ मई को होनी है और नये सदस्य को नामिनेट करने के लिए २ मई तक का समय नागरिक समिति के पास है यदि उनके पास यह करने की इच्छा शक्ति हो तो। उनके सहयोगियों के कथन कि समिति में प्रकांड बिल बनाने के लिए कानूनन विशेषज्ञो की आवश्यकता है इसलिए समिति में विशेषज्ञ वकील लिए गये है और उन्हे रिप्लेस नहीं किया जा सकता है। यदि उनसे यह पूछा जाय कि शांति भूषण और प्रशांत भूषण कमेटी के सदस्य न रहने की स्थिति में भी वे अपनी मौलिक और महत्वपूर्ण सलाह कमेटी के अन्य सदस्यों को देकर सरकार पर कमेटी के बैठकों के दौरान अपने प्रस्ताव देश नहीं कर सकते है? पूर्व में भी उनके सहयोग से ही अन्ना हजारे ने जनलोकपाल विधेयक सरकार के पास पेश किया था। आज भी वे कमेटी के बाहर होकर भी होने वाली हर चर्चा पर अन्ना हजारे और अन्य सदस्यों से अनौपचारिक चर्चा में अपनी राय देकर कमेटी के सामने रख सकते है। लेकिन बात फिर वही सत्ता के आकर्षण की आ जाती है। सत्ता बड़ी हो या छोटी सत्ता के आकर्षण का खेल अलग होता है। तंत्र को यह पूर्ण विश्वास होता है कि उसकी मुस्कान हमेंशा विद्ममान रहेगी। उसके भावों में कुछ परिवर्तन भले ही हो।
क्या हम फिर एक बार 'तंत्रÓ के आगे झुक गये या झुकते चले जा रहे है? आखिरकार हम इस बात को कब समझेंगे? यदि हमें 'तंत्र' से निपटना है तो हमारे अंदर का मन सत्ता के आकर्षण से दूर आपसी गलाकाट प्रतियोगिता से परे निश्छल रूप से मजबूत करले तभी हमारे मन की मुस्कुराहट 'तंत्रÓ की मुस्कुराहट पर हावी हो पायेगी। इसलिए नागरिक समिति और समस्त प्रभावशाली प्रबुद्ध नागरिकों से यही अपेक्षा है कि वे एक बार जो मौका संविधान के बाहर अलिखित रूप से कानून निर्माण के प्रक्रिया में एक नागरिक की भागिदारी को मिला है उसको न चूके। न केवल उस उद्देश्य की प्राप्ति करें बल्कि ऐसे अवसर भविष्य में भी प्राप्त करें कि प्रत्येक समाज को लाभ देने वाली प्रभावकारी कानून बनाने के लिए उनका उसी तरह भागीदारी हो।
राजीव खण्डेलवाल
बहुत बढ़िया पोस्ट! शानदार प्रस्तुती!
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comenzado a ponerse rigidos.