‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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'प्रणव दा' का बयान सही! पर निशाना और कहीं! क्या सही-क्या गलत?

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राजीव खण्डेलवाल
देश के शैडो प्रधानमंत्री कहे जाने वाले केंद्रीय सरकार के नम्बर दो स्थिति के वित्तमंत्री दादा प्रणव मोशाय का विगत दिवस दिया गया यह बयान बहुत ही गौर करने लायक है कि एक तो देश की संवैधानिक व्यवस्था को ध्वस्त करने का प्रयास किया जा रहा है, दूसरा देश में आपातकाल जैसी स्थिति है। वास्तव में प्रणव दादा का यह कथन पूर्णत: सत्य है। लेकिन क्या वास्तव में उनकी यह स्वीकारोक्ति है या आरोप? उनका यह कथन उस स्थिति के समान ही है जहां एक व्यक्ति एक गिलास आधा भरा हुआ देखता है, जबकि दूसरा व्यक्ति उसी गिलास को आधा खाली कहता है। यहां तो दोनो के अपने-अपने तर्क हो सकते है कि गिलास आधा भरा है या खाली। लेकिन प्रणव मुखर्जी का देश की वर्तमान स्थिति के संदर्भ में दिये गए उक्त बयान के दो अर्थ निकालने के बावजूद वास्तविकता यही है कि प्रणव मुखर्जी कुतर्क के सहारे उपरोक्त आरोप को बल देने का दुस्साहसी प्रयास कर रहे है। उनमें इतना साहस नहीं है कि वह इन हालातों के लिए स्वयं की  सरकार की जिम्मेदारियों को स्वीकारें।
प्रणव मुखर्जी संवैधानिक व्यवस्था को ध्वस्त करने की बात जब कहते है तब उनका यह तर्क है कि जनता के लिए निर्णय लेने का अधिकार (फिर चाहे वह हित का हो या अहित का) सिर्फ चुनी हुई बहुमत की सरकार को ही है। पॉच सिविल सोसायटी के व्यक्ति जो जनता के द्वारा न तो चुने गये है और न ही चुनकर आ सकते है उनको कोई अधिकार अपने विचार और निर्णय को चुनी हुई सरकार पर थोपने का नहीं है। तकनीकी रूप से बात सही होते हुए भी कानून, संविधान, और लोकतंत्र के स्थापित मापदंड और मूल्यों के विपरीत होने के कारण उक्त तर्क अमान्य हैं। इसीलिए जब लोकशाही वास्तव में किताबी लोकतंत्र पर हावी हो जाती है। सड़ते गलते हुए चुने हुए प्रतिनिधियों (क्योंकि जो तंत्र को सड़ा गला रहे है उन्हे क्या कहा जाये) के ऊपर हावी होती है तब प्रणव मुखर्जी व सरकार को बिना किसी सत्ता के होते हुए भी सिविल सोसायटी की सत्ता का लोहा मानना पड़ता है। सिविल सोसायटी की सत्ता (शक्ति) जो वास्तविक लेाकतंत्र का प्रतीक बन गई है उससे बराबरी की बातचीत का प्रस्ताव करना प्रणव ने स्वीकार किया। न्याय का यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि न केवल वास्तविक न्याय होना चाहिए बल्कि न्याय हो रहा है यह भी दिखना चाहिए (नॉट ऑनली जस्टिस बी डिलिवर्ड बट जस्टिस शुल्ड बी सीम्स टू बी डिलिवर्ड) इसी प्रकार लोकतंत्र चुने हुये प्रतिनिधियों द्वारा चुनी हुई सरकार द्वारा ही चलाई जाना चाहिए। लेकिन वास्तविक रूप से वे सिर्फ जनता के हितो के लिए ही अपने कर्तव्यों का पालन करें ऐसा न केवल जनता को (जिसके द्वारा वे चुने जाते है) महसूस होना चाहिए, दिखना चाहिए वरन विश्वास भी होना चाहिए। जब लोकतंत्र के इस चुने हुए तंत्र और उनको चुनने वाली जन-तंत्र के बीच में अविश्वास की खाई पैदा हो जाती है तब जनता को ही आगे आकर उस खाई को पाटने का प्रयास करना होता है। क्योंकि इस स्थिति को निर्मित करने वाले जिम्मेदार व्यक्ति तो सत्ता के मद में मदहोश होकर इतने अंधे हो जाते है कि उन्हे वह खाई नहीं दिखती है और वे अपने कर्तव्यों से विमुक्त हो जाते है। इसलिए उपरोक्त भावनाओं से परिपूर्ण यदि हम पूरे परिदृश्य को देखे तो यह स्पष्ट है कि सत्तारूढ़ एवं विपक्ष दोनो दलो से निराशा मिलने के कारण ही जनता ने सिविल सोसायटीज के रूप में तीसरे पक्ष में अपना न्याय का पक्ष देखने की कोशिश की है और इसलिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक, रंक से राजा तक जाति, धर्म की सीमा से परे, समस्त जनों का अभूतपूर्व सहयोग व समर्थन मिला है। यह सन् १९७४ के गुजरात से प्रारम्भ हुए नवनिर्माण आंदोलन जो बिहार में जाकर अंत में जेपी आंदोलन में परिवर्तित हो गया से भी अधिक विशिष्ट महत्ता लिए हुए है। इसलिए यदि हमें लोकतंत्र के वास्तविक स्वरूप को बचाना है लोकतंत्र का वास्तविक फायदा प्रत्येक नागरिक को पहुंचना है तो इस जन आंदोलन का सफल होना अत्यंत आवश्यक है। 
              संवैधानिक व्यवस्था को ध्वस्त करने का आरोप लगाने वाले प्रणव दा इस बात का जवाब दे कि आपातकाल के दौरान संविधान में ४२ वा संशोधन करके नागरिको के संवैधानिक अधिकारो की हत्या कर उनकी पार्टी की सरकार ने कौन सा संवैधानिक कर्तव्य निभाकर संविधान को मजबूत किया? इसके पूर्व ३९ वा संशोधन द्वारा प्रधानमंत्री के चुनाव को न्यायालय के क्षेत्राधिकार से परे करने प्रधानमंत्री को तानाशाह बनाने का कार्य कांग्रेस सरकार ने ही किया था जिसे बाद में उच्चतम न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया था। वर्ष १९७१ के भारत पाक युद्ध के बाद हुए भावनात्मक चुनाव में ४४ प्रतिशत वोट पाकर ६८ प्रतिशत सीटे (३५२) व इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वर्ष १९८४ में हुए चुनाव में भावनात्मक लहर के चलते ४९ प्रतिशत वोट ७८ प्रतिशत सीटे (७८ प्रतिशत) संसद में प्राप्त कर बहुमत (५० प्रतिशत) के समर्थन के अभाव में भी संविधान की इस कमी का फायदा उठाकर शासन किया लेकिन संविधान की इस (५० प्रतिशत से अधिक का बहुमत) महत्वपूर्ण कमी पर ध्यान देकर आवश्यक सुधार कर  संविधान संशोधन विधेयक क्यों नहीं लाया? आपातकाल में ''कमिटेड ज्यूडिसरीÓÓ का नारा देकर कांग्रेस ने संविधान की किस संस्था को मजबूत किया? शाहबानो प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को निष्प्रभावी बनाने के लिए संविधान संशोधन कर संविधान को मजबूत किया या वोट की राजनीति के चलते अल्पसंख्यक वर्ग को खुश किया। ५ जून की रात्री को रामलीला मैदान दिल्ली निहत्थे सोये हुए अनशनकारियों पर लाठी चार्ज करके जम्हूरियत को जगा कर लोकतंत्र को मजबूत करने का कार्य भी? प्रणव दा आपकी सरकार ने ही किया है। इस तरह से यदि आप लोकतंत्र को मजबूत करते रहे तो निश्चित मानिये भविष्य में न लोक रहेगा और तंत्र।
             प्रणव दा का दूसरा मुख्य आरोप राष्ट्र में इमरजेंसी जैसी हालात के पैदा होने की है जो वास्तव में अक्षरश: सही है, लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है? यदि आप वर्ष १९७५ के आपातकाल की याद करें तो आपको याद होगा जेपी आंदोलन से उत्पन्न आग की तपस को तत्कालीन कांग्रेसी सरकार जिसका नेतृत्व लोह महिला इंदिरा गांधी कर रही थी अपनी सत्ताच्युत होने के डर की आशंका मात्र से उन्होने जनता के संवैधानिक अधिकारों का गला घोटकर लोकतंत्र की हत्या कर इमरजेंसी लागू कर कुछ समय के लिए अपनी सत्ता बनाये रखी। इसकी प्रतिक्रिया किस रूप में आई वह पूरे विश्व ने देखा है। आज वर्तमान सरकार जिस बेशर्मी, ढीठपन, हेठी, निरंकुशता, अत्याचार, दमन के साथ (ऐसा कोई अलंकार नहीं है जो सरकार पर लागू न होता हो) कार्य कर रही है उसका एकमात्र कारण विकल्पहीनता व जनता की लाचारी की तथाकथित स्थिति की और सत्ता में मदहोश होना है। लेकिन प्रणव दा को इस बात को समझ लेना चाहिए कि अब स्थिति उतनी आसान नहीं है कि सरकार आपातकाल लगाने की सोच भी सके। शायद प्रणव दा के मन में यह बात होगी की रामलीला मैदान में हमने जनता के ऊपर सफलता पूर्वक बुलडोजर चलाया लेकिन वे इस बात को भूल रहे है कि आदमी के शरीर पर जब डंडा मारा जाता है तो उसके तीव्र दर्द का अहसास उसे कुछ समय पश्चात ही होता है। ठीक इसी प्रकार उक्त घटना की प्रतिक्रिया से भी केंद्रीय सरकार नहीं बच पायेगी यह बात ध्यान में रखना चाहिए।
                 प्रणव दा की लाईन में ही कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी का यह बयान भी गौरे काबिल है कि अन्ना हजारे गैर निर्वाचित तानाशाह है। गैर-निर्वाचित तानाशाह निर्वाचित-तानाशाह से ज्यादा अच्छा है क्योंकि निर्वाचित व्यक्ति जनता का नौकर और सेवक होकर उसके कर्तव्य के विपरीत तानाशाही कर अत्याचार रहा है। जबकि जनता के प्रति कोई कानूनी बंधनकारी उत्तरदायित्व ओढ़े बिना जैसा की निर्वाचित व्यक्तियों के ऊपर है गैर निर्वाचित व्यक्ति यदि तानाशाह है तो वह इसलिए ज्यादा अच्छा है क्योंकि निर्वाचित प्रतिनिधि सरकार की सत्ता के कारण तानाशाह है जबकि गैर निर्वाचित अन्ना हजारे एक तो जनता की सत्ता के कारण तानाशाह है दूसरे जनता के अधिकारो के लिए लड़ रहे है। इसलिए जन जनार्दन (जनता) की सत्ता सरकारी सत्ता से बड़ी होती है यह बात खुद सरकार द्वारा उठाया गया लोकपाल बिल कमेटी के निर्माण के कदम से चाहे वह मजबूरी में ही उठाया गया कदम क्यो न हो, सिद्ध होता है। प्रणव दा के उक्त बयान पर राष्ट्रव्यापी बहस की आवश्यकता है ताकि उक्त आंदोलन की सत्यता, प्रमाणिकता व उसकी जिम्मेदारी यदि जनता तय करती है तो सच मानिये प्रणव दा आपने जो आशंका व्यक्त की है भले ही उसके पीछे आपका निहित अर्थ कोई दूसरा हो लेकिन संवैधानिक संस्था को मजबूत करने का राष्ट्र धर्म निभाने का एक मौका आपको अवश्य मिल जाएगा जिसका उपयोग करना आपके विवेक पर निर्भर होगा।
             एक बात और प्रणव दा जनता आपसे पूछना चाहती है जो व्यक्ति फिर वह चाहे अन्ना हो या बाबा रामदेव, जब-जब भ्रष्टाचार के विरूद्ध प्रभावी कार्यवाही की मांग सरकार से की जाती है तब तब कोई प्रभावी कदम उठाने के विपरीत आवाज उठाने वालो के विरूद्ध ही निम्र स्तर तक दुष्प्रचार किया जाकर सीबीआई से लेकर विभिन्न संस्थाओं का दुरूपयोग कर, उन्हे प्रताडि़त करने का असफल प्रयास किया जाता है। शायद आपका यह कार्य भी संवैधानिक व्यवस्था को सुद्रढ़ करने की परिधि में ही आता होगा?
अत: यह स्पष्ट है कि प्रणव दा का उक्त बयान उस कहावत को ही सिद्ध करता है कि उल्टा चोर कोतवाल को डाटे।

(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

One Response so far.

  1. Anonymous says:

    Hehe, the post took quite a while to read but it sure worth it

 
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