‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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क्या सरकार मुद्दो से जनता का ध्यान हटाने मे सफ ल तो नही हो रही है?

4 comments
 राजीव खण्डेलवाल


भ्रष्टाचार, कालाधन, विदेशो से कालेधन की वापसी और लोकपाल के महत्वपूर्ण मुद्दो पर विगत कुछ समय से बाबा रामदेव और अन्ना हजारे द्वारा जो राष्ट्र जागरण मुहिम चलायी जा रही है उससे पूरा देश आदोंलित हो चुका है। इसकी गर्मी से न केवल सरकार के हाथ पावं फूल गये बल्कि घबराहट मे इन दोनो संतो के समक्ष सरकार लगभग समर्पण (सरेंडर) की स्थिति मे दिखी।  लेकिन अचानक पांच तारीख की रात्रि मे हुए अमानुषिक अत्याचार की घटना ने अनशन उत्पन्न परिस्थितियों के दृश्य व परिवेश को ही बदल दिया। यह एक बहुत ही चिंताजनक स्थिति की ओर इंगित करता है। प्रत्येक नागरिक को इस संबंध में सावधानी पूर्वक गंभीरता से चिंतन, मनन व विचार करने की आवश्यकता है। 
केंद्रिय सरकार जिस चालाकी, क्रूरता और लाचारीपन के संयुक्त प्रयासो से उत्पन्न हुई स्थितियो का जवाब दे रही है उससे तो यही लगता है कि वह अपने मूल (छिपे हुए) उद्देश्य मे सफ ल हो रही है। चार तारीख को सरकार पूर्णत: नतमस्तक की स्थिति मे थी जब उसने बाबा की सभी मांगे मानकर अपनी लाचारी प्रर्दशित की। लेकिन यह स्थिति वैसी ही थी जिस प्रकार अन्ना हजारे के अनशन से उत्पन्न संकट को तात्कालिक रूप से अप्रभावी  बनाने के लिये सरकार ने अन्ना की मांगे मानी। लेकिन उसके तत्काल बाद न  केवल अन्ना वरन् उनके सहयोगी पर तेजी से हमले करना प्रांरभ कर दिये ताकिमजबूत लोकपाल बिल न आ पाये। इसके लिये केन्द्रीय सरकार लगातार अडंगे व रूकावटे डाल रही है जिसकी कड़ी में प्रणव मुखर्जी का आया हुआ आज का बयान सरकार के उद्देश्यों को स्पष्ट कर देता है। यह हम सब देख रहे है। उसी प्रकार बाबा रामदेव  के सत्याग्रह से उत्पन्न संकट को तत्कालिक रूप से निष्प्रभावी बनाने के लिये एक तरफ  बाबा से बातचीत कर उनकी मांगे मानने का उन्हे विश्वास दिलाती रही और दूसरी ओर से अपनी ही पार्टी के प्रभावशाली महासचिव दिग्विजय सिंह के माध्यम से निकृष्ठ निम्र तरीके से बाबा को ''महिमामंडितÓÓ करते रहे। बाबा की मांग को मानने के बाद  केन्द्रीय सरकार ने पुन: अपना असली रूप दिखाना प्रांरभ किया और मघ्यरात्री मे निहत्थे सोयो हुये भुखे, प्यासे, अनशनकारियो पर जो अत्याचार का तांडव रचा गया उसे संविधान की कोई भी खंड, भारतीय दंड सहिंता, दंड प्रकिया संहिता की कोई भी धारा व मानवाधिकार का कोई भी अध्याय उक्त कृत्य को किसी भी रूप में न्यायसंगत नही ठहरा सकता है। उस दिन सरकार द्वारा घटित घृणित कृत्य से माफी मांगने के विपरीत सरकार और उसके इशारे पर कुछ व्यक्ति और भी बेशरमी भरे तरीके से उसे उचित ठहराने का प्रयास कर रहे है।  जिस ताकत के साथ पांच तारिख की रात्रि की घटना पर राष्ट्रिय चैनलो पर बहस चल रही है वहवास्तव मे बहस का मुद्दा बिल्कुल नही है। वास्तव मे तो न केवल उक्त घटना का प्रतिकार किया जाना चाहिये था बल्कि हर क्षेत्र से उसकी घोर भत्र्सना की जानी चाहिये थी। लेकिन उसके विपरित उक्त घटना पर राष्ट्रीय बहस चलाकर सरकार अपने उक्त उद्वेश्य मे सफ ल होती दिख रही है कि भ्रष्टाचार कालाधन और लोकपाल के मुद्दे पर से जनता का ध्यान बंाट कर आज उक्त अनैतिक गैरकानूनी घटना के औचित्य पर बहस हो रही है। 
कुछ  बाते दिनांक पांच तारीख की रात्रि घटना पर कर ली जावे। जिस तरह सरकार द्वारा यह कहा जा रहा है की धरने की अनुमति का का बाबा रामदेव द्वारा दुरूपयोग किया गया जिस कारण से अनुमति रद्द की जाकर तुरंत आवश्यक कार्यवाही की गई जो दुर्भाग्यपूर्ण लेकिन आवश्यक थी जैसा की प्रधानमंत्रीजी ने भी कहा है। वास्तव मे यह उस भ्रामक प्रचार का हिस्सा है जहा एक झूठ यदि सौ बार कहा जाये तो वह सच लगने लगता है की मिथ्या धारणा पर आधारित है। सर्वप्रथम सरकार  को  इस बात के लिये बाबा को धन्यवाद देना चाहिये की बाबा ने अनशन के लिये अनुमिति मांगी। वास्तव मे कोई भी आंदोलन अनशन, धरना सत्याग्रह के द्वारा किया जाता है। यदि इन शब्दो का अर्थ देखा जाये तो इन सब मे जो निहित अर्थ, भाव है उससे ''विरोधÓÓ का स्वर ही निकलता है न कि 'सहमतिÓ का।  इसलिये इस विरोध के लिये उस सरकार से जिसके विरूद्ध आंदोलन करना चाहते है उसी से अनुमति मांगना न तो उचित है और न ही आवश्यक। क्योकि शांति पूर्वक अहिंसक अनशन के द्वारा विरोध व्यक्त करना हमारा संवैधानिक अधिकार है, जो धारा 144 के लागु होने पर उसका उलंघन होते हुये भी यह संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार है। जब हम किसी मुद्दे पर सरकार द्वारा ध्यान न देने की स्थिति में जनता का ध्यान आक र्षित करते है तो वह हम अनुमति-सहमति के माध्यम  से नही बल्कि विरोध के माध्यम से ही (जो कि हमारा संवैधानिक अधिकार है) कर सकते है बशर्ते वह विरोध का तरीका पुर्णत: अहिंसावादी हो भड़काने वाला न हो उत्तेजक न हो। यहां पर बाबा लगातार अंहिसा की बात करते रहे। किसी प्रकार की उत्तेजना की बात नही की और लगातार यह घोषणा करते रहे की न हम मरने आये है न मारने आये है अर्थात हमारा अनशन आमरण अनशन भी नही है। सरकार द्वारा दी गई अनुमति को रद्द करने के पूर्व आयोजक को कोई कारण बताओं सूचना पत्र नहीं दिया गया। अनुमति रद्द करने के जो तथाकथित कारण बतलाए गये कानूनी व वास्तविक धरातल पर बिलकुल भी औचित्यपूर्ण नहीं है। अनशन स्थल से अनशनकर्ताओं को एक समय बद्ध समय भी चले जाने के लिये नहीं दिया गया। इस प्रकार इस निहत्थे पूर्णत: शांतिपूर्ण आंदोलन को केंन्द्रीय सरकार ने जिस दमनचक्र के द्वारा  कुचलने का प्रयास किया है उसका एकमात्र कारण न केवल बाबा और सत्याग्रहियों को सबक सिखाने का दु:साहस दिखाना है, बल्कि जनता का ध्यान मुख्य मुद्दो से हटाकर आंदोलन को कमजोर करना है जिसमे सरकार की चाले सफ ल होती दिख रही है। इसलिये अभी यदि जनता को इस आंदोलन को आगे बढ़ाना है तो इसके लिये बिना विचलित हुये, पूरे देश में हमें सत्याग्रह अनशन पर दृढ़ प्रतिज्ञा के साथ बैठना होगा। जन-मानस को सत्यागह के लिए लिये अनुमति लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि सरकार की नजर में इस सत्यागृह से किसी कानून का उलंघन होता है तो गिरफ्तारिया देकर देश की जेल भरने के लिये हमें तैयार रहना होगा, क्योकि यह सरकार बातचीत की भाषा न तो समझती है न मानती है और न मानना चाहती है सिवाय निर्लज्ज होकर अपनी स्वयं की पीठ थपथपाने मे लगी है। इससे भी बात यह है कि यदि यह जन आंदोलन असफल हो गया तो भविष्य में कोई भी अहिंसात्मक शांतिपूर्ण आंदोलन करने का साहस नहीं जुटा पायेगा।
आंदोलन का दूसरा पहलू यह भी है कि जिस सहिष्णुता, सहनशीलता का परिचय बाबा ने दिया सरकार ने उसे उनकी कमजोरी मानकर उन पर पांच तारीख की रात्री में आक्रमण करने का दुस्साहस किया जिस बाबा ने मनमोहन सिंह को देश का ईमानदार प्रधानमंत्री बतलाया जबकि वे स्वतंत्र भारत के इतिहास का सर्वकालीन सबसे अधिक संख्या एवं आकार में हुए विभिन्न घोटालों की सरकार के मुखिया है। उसे बाबा द्वारा ईमानदार प्रधानमंत्री कहना उनके स्वच्छ आंतरिक मन व सहृदयता को दिखलाता है। इसके विपरीत दिग्गी राजा द्वारा उन्हे ठग घोषित करना पार्टी के दोहरे पन का बेशरम प्रदर्शन है। इसलिए यदि पिछले कुछ दिनों में घटित घटनाओं पर गौरपूर्वक विचार करे तो यह स्पष्ट आशंका पैदा हो रही है कि क्या देश तानाशाही लोकतंत्र की ओर तो नहीं जा रहा है? जिसका उत्तर उत्तरदायी नागरिकों के दृढ़ता पूर्वक खड़े होने पर ही निर्भर है। 
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)


4 Responses so far.

  1. बहुत सही और सटीक बात पर राजनीति कब किसी को एक होने देगी वो तो अपना पूरा प्रयास सबको दूर करने का ही करेगी क्युकी अगर हम एक हो गये तो फिर रोक पाना नामुमकिन ही होगा | राजनीति का खेल है देखो क्या होता है |

  2. Anonymous says:

    We should be painstaking and fussy in all the intelligence we give. We should be extraordinarily careful in giving guidance that we would not about of following ourselves. Most of all, we ought to refrain from giving advisor which we dont tag along when it damages those who woo assume us at our word.

  3. Anonymous says:

    weiss punctirten Kleber zeigt.

 
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