मैं बढ़ी जा रही हूँ , पर तुम्हें भूली नहीं हुं |
जल रही हुं पर जलनें से , रौशन हुई हुं |
ढल रही हुं पर साथ मिलता है समय का |
चल रही हुं पर साथ साया है तुम्हारा |
चाहती हुं , दो पल रुक जाऊ साथ तुम्हारे |
पर क्या करूँ , असंख्य हाथ है मुझको पुकारे |
पथ में मैं नये चलने जा रही हुं |
पर मैं क्या तुम्हें कभी भुला पा रही हुं |
जानते तो तुम भी हो , हर तरफ फैला है क्रंदन |
पर मुँह फेर कर ये तो होगा न कभी कम |
विश्व की ये वेदना कहानी तो नहीं है |
भूख से बिलखते बच्चों के खून में
रवानी भी तो नहीं है |
शांति कैसे छाए , जब वातावरण में उदासी भरी हो |
तृप्ति कैसे होगी , जब सृष्टि ही प्यासी पड़ी हो |
ऋण न चूका पायें तो जन्म लेना भी व्यर्थ है |
यही सोचकर पाँव पथ की और अग्रसर हैं |
सोचती हुं आज कोई गीत एसा गाऊँ |
भीग जाये ये धरा मैं नीर एसा बहाऊँ |
मानव होकर मानव की वेदना को जो न जानें |
व्यर्थ है जीना जो उसकी पीड़ा को न पहचानें |
मुझमें और उसमें अंतर तो ऐसा कोई नहीं है |
मूक हुं तो क्या उसकी व्यथा न पहचानूँ |
प्यासे पंछी को देख , जब फट सकता है मानव मन |
तो कंकाल होते देख , प्रेरणा क्यु न देता मन |
देखती सुनती मैं रहती हुं ये हर पल |
साथ हुं तेरे न भूली हुं तुझे एक पल |
मन के भावों को प्रवाह दिया है ./.. अच्छी प्रस्तुति
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