पुरूषों की एक फितरत है ट्रेन, बस, ऑटो में जा रहे हो, कहीं लम्बी लाईन में लगना हो या फिर कोई सरकारी, गैर सरकारी काम हो या सार्वजनिक अन्य किसी कार्य में किसी महिला को खड़ा देखे तो खुद की सीट दे देते है, मुसीबत में हो तो झट मदद के लिए आगे आ जाते है। हालांकी उनके लिए पहले से ही बहुत सी सुविधांए आरक्षित होती है जिनपर आप चाहकर भी अपनी नीयत नहीं डाल सकते। उसके बावजूद वे जहा पहुँच गयी ऐसा लगता है जैसे उनके लिए पहले से ही जगह आरक्षित थी वो आकर वहां फटाफट कब्जा कर लेती है या हमारे द्वारा दे दिया जाता है. हम पुरूषों की दिनचर्या का भाग बन गया है कि सफर में किसी अपनी सीट देकर उन्हे सआदर बैठने के लिए देना, लाईन में लगे हो तो उन्हे अपने आगे प्रमोट करना, उनकी हर तरह से मदद करना। हम बहुत दयावान हो जाते है, फिर हो भी क्यूं नहीं महिलाएं होती ही है दया की पात्र। परन्तु उदार बनते वक्त हमनें कभी ये नहीं सोचा कि क्या महिलाएं भी आपके प्रति ऐसी भावना रखती है? जरा अपने दिमाग पर जोर डालिए और सोचिए जब आप पिछली बार ट्रेन से जनरल डिब्बे में कही जा रहे थे भीड़ के मारे आप खड़े-खड़े अपने सामान का बोझ उठाये दयापूर्ण चेहरे से अपने सामने की सीट पर लम्बे पैर पसारे आराम कर रही महिला से थोड़ी सी जगह मांगने का गुनाह कर बैठते है, सोचिए उसका रिएक्शन क्या था? हा हा हा... ये बोलने की बात नहीं है, ये तो सब जानते ही है क्या हुआ होगा, चार गालियां खायी होगी और आगे कहीं और सीट देख लेने की हिदायत भी मिली होगी, सीट न देने की सफाई में बीमार होने का बहाना मिला होगा, या और मुह मोड़कर सो गई होगी, बस्स्स्स्स। वो तो महिलाएं है वो जहां बैठ गई, जहां खड़ी हो गई या उन्होने जहां इसारा कर दिया वहां उनका "तत्काल-आरक्षण" हो जाता है। उनसे कौन उलझकर मुसीबत मोल ले, एक फिल्मी डायलॉग याद आता है- छूरी खरबूजे पर गिरे या खरबूजा छूरी पर दोनों ही सूरत में कटता खरबूजा ही है। इस डायलॉग और परिस्थिति में फर्क इतना है कि फिल्म में खरबूजे की कल्पना महिला के लिए किया था और वास्तव में खरबूजा तो पुरूष ही होता है।
एक घटना का वर्णन करता हूं जो कुछ ही समय पहले मेरे साथ घटित हुई, घटना रोचक थी की नहीं ये आप तय करें। मैं अपने शहर बैतूल से अन्य शहर इंदौर जा रहा था, रिजर्वेशन नहीं मिलने के कारण जनरल डिब्बे में सफर करना था, वैसे भी ७ घंटे का सफर था तो परेशानी की बात नहीं थी। मैं अपने शहर बैतूल से त्रिशताब्दी एक्सप्रेस से बैठा शादी का सीजन होने के कारण ट्रेन में भीड़ का ये आलम था की पैर रखने की भी जगह नहीं थी। इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं! ऐसा तो अमुमन हर दिन ही देखने को मिलता है। ट्रेन में बड़ी मुश्किल से घुसा अन्दर पुरूष-महिलाएं सब ठसा-ठस भरे थे। मै जैसे-तैसे उनसे बचते-बचाते अन्दर पहुँचा तो देखा कुछ सीट पर जगह तो थी परन्तु वहा महिलाएं आराम फरमा रही थी, तो ऊपर की कुछ सीटो पर रंगदार भाई लोग खर्राटे भर रहे थे, इन दोनों ही प्रकार की सवारियों से कोई उलझना नहीं चाहता क्यूंकि इन छूरी तलवारों से उलझकर कटना थोड़े ही ना है। इसलिए चाहकर भी इनसे कोई सीट मांगने की हिम्मत नहीं करता। खैर.. एक सीट पर मेरा एक पुराना मित्र नजर आ गया जो अपने साथियों के साथ एक सीट पर कब्जा जमाएं बैठा था, वह अगले स्टेशन इटारसी जा रहा था। उन लोगो ने एडजस्ट होकर मुझे थोड़ी सी जगह दे दी। मैं उनके साथ थोड़ी देर बैठकर बातें कर ही रहा ही था कि मैंने देखा मेरे एक दम सामने खड़ी एक महिला के गोद में लटका बच्चा बहुत जोर-जोर से रो रहा है। वह महिला उस बच्चे को एक हाथ से सम्भाले बड़ी मुस्किल से ही खड़ी हो पा रही थी। चेहरे से बेहद परेशान और बहुत ही दया की पात्र नजर आ रही थी। मुझे उस पर दया आ गई मैं झट से खड़ा हो गया और उसे अपनी सीट ऑफर कर दी। मेरे मित्र ने मुझे मना भी किया पर फितरत, मैं नहीं माना। सीट देकर मेरे मन को तसल्ली मिली की भलेही मैं खड़ा हूं पर मैंने किसी जरूरतमंद की मदद की। २ घण्टे बाद इटारसी आया मेरा मित्र जो कि महिला के साईड में बैठा उसके निवेदन पर बच्चे को सम्भाल रहा था। वह और उसके साथी सीट से उतरने लगे। मैं भी खड़े-खड़े थक गया था, मैने सोचा चलों अब अपनी सीट पर थोड़ी देर बैठा जाए। तब क्या देखता हूं महिला तो लम्बे पैर पसार चुकी है और अपने बच्चे के साथ पूरी सीट पर अविलम्ब आराम से लेट चुकि है। मैंने कोशीष की उसके पैरों के पास बची थोड़ी सी जगह पर बैठने की। उसने तो बैठने को मना कर दिया। मुझे क्या वह तो किसी को भी लिफ्ट देने तैयार नहीं थी। उसे जब मैंने याद दिलाया कि यह मेरी और मेरे दोस्त की ही सीट है जो उसे दया करके दी गई थी, तो क्या था वह तो बिफर गई। कहने लगी उधर कोई और सीट नहीं दिख रही है क्या? पूरी ट्रेन पड़ी है। मै बिमार हूं, मेरा बेटा बीमार है। ट्रेन में बहुत लोग सो रहे है जाओं किसी और को उठाओ।
बस फिर क्या था कुछ नहीं कर सकते पूरी ट्रेन में यही हाल था। जिसके पास भी महिला नाम का छूरा था उनके पास पूरी सीट खाली थी। बाकी लोग वही ट्रेन की लोकल यात्रा (खड़े-खड़े) का आनंद ले रहे थे उसमें से मैं भी एक था। सिर्फ ट्रेन ही नहीं ऐसी घटनाएं मैने बहुत जगह और बहुत लोगो के साथ होते देखी है। पर क्या कर सकते है ये तो सभी जानते है जमाना उनका है। प्यार से मान जाए तो मना लीजिए उनकी उदारता है, आपने जरा सी जोर जबदस्ती या बक-बक की तो छेडख़ानी कहलाएगी, और छेड़छाड़ की धाराएं किसीको बतानें की जरूरत नहीं है। तो यह था मेरा अनुभव 'तत्काल महिला आरक्षण इन द पब्लिक प्लेसेस!'
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Hierher gehoren das ungesauerte Brot der