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से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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'प्रभावशाली कानून' 'दृढ़ निश्चय' 'कठोर आचरण' नैतिकता -वर्ष २०१२ की आशा, आवश्यकता!

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राजीव खण्डेलवाल:

             ''वर्ष २०११" व्यतीत हो चुका है। पूरे वर्ष चली रालेगण केसंत अन्ना की लोकपाल की मुहिम ही राष्ट्र के राजनैतिक एवं सार्वजनिक क्षेत्र में छाई रही। 'अन्ना' लगातार इस बात पर अड़े रहे कि एक प्रभावशाली, सार्थक किन्तु कड़क लोकपाल बिल (जैसा उनके द्वारा परिभाषित किया गया था) वैसा ही संसद में पारित होकर कानून बने। ताकि उनके अनुमानानुसार ६० प्रतिशत तक भ्रष्टाचार कम हो सके। परन्तु वैसा कड़क कानून संसद में उस रूप में प्रस्तुत नहीं हो सका। लेकिन ४४ वर्ष के लम्बे जद्दोजहद के बाद एक लोकपाल एवं लोकायुक्त बिल अवश्य लोकसभा में पारित हुआ। परन्तु यही बिल राज्यसभा में पारित नहीं हो सका तथा बिल अनिश्चित कालीन (साईन-डाई) लम्बित हो गया। वर्ष २०११ की संसद की यही ''उपलब्धि" कही जा सकती है?
             वास्तव में क्या आज हमें नये वर्ष में खुले वातावरण में बिना किसी पूर्वाग्रह के इस बात पर विचार नहीं करना चाहिये कि भ्रष्टाचार न्यूनतम कैसे होगा? क्या मात्र कड़े कानून बना देने से यह कम हो जायेगा? जिस भी किसी मुद्दे के लिये कानून (चाहे वह कितना ही कठोर क्यों न हो) बनाया जाता हैं, वह मुद्दा सुलझ जायेगा, यह सोच बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं होगी, यदि कानून बनाने के साथ-साथ उसको लागू करने की मजबूत इच्छाशक्ति हम विकसित (डेवलप) नहीं कर सके। इस मुद्दे पर न तो अन्ना एवं उनकी टीम ने और न ही उन सब लोगो ने जो लोकपाल बिल का समर्थन कर रहे है कोई विचार किया और न ही कोई प्रभावकारी सुझाव दिया। क्या अन्ना टीम जनता के सामने एक स्वेत पत्र प्रस्तुत कर सकती है? जिसमें जितने भी अपराधिक कानून स्वतंत्र भारत में आज तक लागू किये गये, उनको बनाने के पूर्व और लागू करने के पश्चात अपराधों की संख्या में कितनी गुणात्मक कमी आई है? फांसी की सजा होने के बावजूद इस सजा के डर से कितने लोगो ने हत्या नही की? 'अत्याचार निवारण अधिनियम १९८९' आने के बाद हरिजन तथा आदिवासियों के विरूद्ध अपराधों में कितनी कमी आई? इसी तरह कुछ वर्ष पूर्व ही लागू 'महिला घरेलू हिंसा से बचाव अधिनियम २००५' के लागू होने के बाद हिंसा में कितनी कमी आई या इसके विपरीत परिवार और अधिक टूटने लगे? इन सबके आकड़े जनता के सामने लाये जाना चाहिये। इसी प्रकार के अनेक उदाहरण दिये जा सकते है। वास्तव में यह एक शोध का विषय है। इन सबके विपरीत आज यह महसूस किया जा रहा है कि जितने अधिक कानून बनेंगे, जितने अधिक प्रतिबंध लागू किये जावेंगे, लोग निरन्तर उससे ज्यादा कानून का उलंघन करने वाले गैर-उत्तरदायी व्यक्ति बनते जायेंगे क्योंकि जनता स्वयं के ऊपर कानून लागू करने के प्रति उतनी संवेदनशील नहीं है। हम देखते है सार्वजनिक स्थान पर थूकना, बीड़ी पीना कानूनन एक अपराध है लेकिन उसको स्वयं पर लागू करने की इच्छाशक्ति न होने के कारण सामान्य नागरिक जाने-अनजाने में उक्त कानूनों का उलंघन करता रहता है। अत: मुख्य चिन्ता का विषय कानून बनाना नहीं बल्कि ईमानदारी से कानून के प्रतिपालन की दृढ़ इच्छाशक्ति को उत्पन्न करना है ताकि लचीला कानून भी असरदार तरीके से लागू होकर अपनी सार्थकता सिद्ध कर सके। एक तरफ कानून बनाना और उसको लागू करवाना तथा दूसरी तरफ एक नागरिक होने के नाते देश के समस्त कानूनो को स्वयं पर लागू होने का एहसास कराना दोनो स्थिति एक बौद्धिक स्तर (माइंड स्टेटस) से संबंधित है जिसे विकसित करना ही सुधार का एक मात्र उपाय है। लोगो को नैतिकता का उच्च से उच्चतर स्तर का पाठ पढ़ाया जाकर उनको अपने कर्तव्यो के प्रति जागरूक बनाकर उनकी बुद्धि का नैतिक स्तर ऊंचा उठाया जावे तभी हम भ्रष्टाचार विरोधी कानून बनाकर सफलता पूर्वक परिवर्तन करवा सकते है। इस दिशा में जितने भी सुधारवादी लोग झण्डाबरदार बने हुए है वे वास्तव में इस दिशा में कितने जागृत है यह प्रश्र बार-बार मन में कौंधता है। बगैर लोगो की मानसिकता बदले उनकी नैतिकता का स्तर ऊंचा उठाये बिना सिर्फ कानून बनाकर हम सफल नहीं हो सकते है। श्री टीएन शेषन से यह बात सिद्ध होती है।  'लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम १९५१' तब चर्चा में आया जब टीएन शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त वर्ष १९९० में बने और उन्होने उसी १९५१' के कानून को ही प्रभावी रूप से लागू कर स्वच्छ सस्ता व निष्पक्ष चुनाव कराने की सफल साहसिक पहल की। उसके पहले और उसके बाद उक्त कानून को दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में उक्त प्रभावशाली रूप से लागू न करने के कारण उसकी महत्ता लोगो के बीच उपरोक्तानुसार स्थापित नहीं हो पाई। इसी प्रकार यदि 'प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट १९८८' के अंतर्गत कार्य करने वाला पूरा तंत्र यदि अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति व कानून की मंशा के अनुरूप कार्य कर सके व उसे पूर्ण स्वतंत्रता से कार्य करने दिया जाय तो शायद किसी लोकपाल बिल की आवश्यकता ही न पड़े। पूर्व रेलमंत्री लाल बहादुर शास्त्री (जिन्होने नैतिकता के आधार पर रेल दुर्घटना होने पर नैतिकता के आधार पर रेलमंत्री पद से स्तीफा दे दिया था), पूर्व आईएएस एमएन बुच, मुम्बई महानगरपालिका के पूर्व आयुक्त श्री खैरनार, मेट्रोमेन श्रीधरन, नागपुर के पूर्व नागपुर सुधार प्रन्याश के अध्यक्ष श्री चन्द्रशेखर आइऐएस जैसे व्यक्तित्व अनेक उदाहरण विभिन्न क्षेत्रों में है जो इस बात को सिद्ध करते है कि नैतिकता ली हुई दृढ़ इच्छा शक्ति व पूरी मारकशक्ति (कानून) के साथ यदि कठोरता से वर्तमान कानून को पूर्ण ईमानदारी से लागू किया जावे तो देश के वर्तमान कानूनो से ही समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। तब अन्य किसी नये कानून की कतई आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।
             मैं भी 'अन्ना' तू भी 'अन्ना' कहने या टोपी लगाने से न तो काम चलेगा और न ही लोग 'अन्ना' बन पाएंगे। वास्तव में किसी समस्या का स्थायी इलाज रोगी को ठीक करना नहीं बल्कि रोग का जड़ से उन्मूलन करना है। तभी हम समस्या से मुक्त हो पायेंगे। जनलोकपाल के द्वारा आप भ्रष्टाचारी को सजा तो अवश्य दिला पायेंगे जैसा कि अन्ना टीम लगातार कह रही है लेकिन इससे भ्रष्टाचार कम होगा? क्योंकि अन्ना टीम का लोकपाल का मूलमंत्र कड़क 'सजा' के 'डर' के 'प्रभाव' से भ्रष्टाचार के अपराध को कम करना वर्तमान आपराधिक सजा व्यवस्था के संदर्भ में बैमानी होगी। हम देख रहे है वर्तमान में सजा के खौफ से अपराधो की संख्या पर कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं हो पा रहा है क्योंकि वास्तव में सजा का वह 'खौफ' डर नहीं है जैसा कि आतंकवादी, तालिबानी अपने लोगो के बीच सार्वजनिक रूप से सजा के पुराने वीभत्व रूप का प्रदर्शन कर आतंक फैलाते है। क्या अन्ना की 'खौफ' पैदा करने वाली 'सजा' की यह कल्पना हो सकती है? कदापी नहीं। निष्कर्ष में लोकपाल तभी अस्तित्व में आयेगा जब व्यक्ति भ्रष्टाचार करे और उसे लोकपाल के सामने प्रस्तुत किया जावे। इसके बजाय यदि भ्रष्टाचार खत्म या कम होने की ही स्थिति पैदा की जाये तो ही इस समस्या से निपटा जा सकता है। इसके लिए भ्रष्टाचार के मूल में जहां से भ्रष्टाचार पैदा हो रहा है उस मूल तत्व पर आक्रमण करना होगा। मतलब भ्रष्टाचार में रिश्वत लेने वाला ही नहीं बल्कि देने वाले व्यक्ति को भी न केवल हतोत्साहित करना होगा बल्कि उसको भी इस बात का पाठ पढ़ाना आवश्यक होगा की वह भ्रष्टाचार के द्वारा सहज रास्ता अपनाने के बजाये ईमानदारी का कठिन रास्ता अपनाने का प्रयास कर भ्रष्टाचार विरोधी मूहिम में स्वयं का सहयोग प्रदान करें। 
             अत: वर्ष २०१२ में अन्ना टीम को सबसे पहले इस बात का प्रयास करना चाहिए कि वे जनता में नैतिकता के विचारों को आगे बढ़ाने का प्रयास करें। यह कार्य सिर्फ अन्ना टीम का ही नही है बल्कि देश के वे समस्त लीडर जिनमें प्लीड करने की क्षमता है, जिनके विचारों एवं कार्यों के हजारों लोग प्रशंसक है, अनुयायी है (चाहे फिर वे आध्यात्मिक, सामाजिक या राजनैतिक क्षेत्र के हो या विभिन्न संस्थाएं हो) वे सब निरन्तर सामुहिक रूप से इस मुद्दे की महत्ता को समझकर इसको आगे बढ़ाने के लिए कार्य करेंगे (जो कि आसान कार्य नहीं है)। निश्चित मानिये वेन केवल देश के लिए ही बल्कि पूरी मानव जाति के कल्याण के लिये इस भ्रष्टाचार उन्मूलन यज्ञ में बहुत बड़ी आहुति डालकर मानव जाति की बौद्धिक व नैतिक स्तर को ऊंचा उठाने वाली चेतना-ज्योंति को हमेशा ज्योर्तिमय करने में सहायक सिद्ध होंगे। 
२०१२ का आगाज इन विचारों से किया जाये, जो सभी लोगो के मन में समाये ऐसी ईश्वर से प्रार्थना करते है।
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(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)
 
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