"जिस संविधान ने यह सर्वोच्च संसद बनाई उसी संसद का यह दायित्व है कि वह उक्त संविधान की मूलभूत संरचना की रक्षा कर सके जिसमें भी वह असफल रही। यदि हम हमारें स्वयं के द्वारा स्वीकृत हमारे ऊपर शासन चलाने वाली प्रणाली को साठ साल में मजबूती प्रदान नहीं कर पाये है, तो क्या समय का यह तकाजा नहीं है कि दूसरी संवैधानिक सभा का गठन किया जाकर एक बेहतर संसद बनाई जा सके?"
हाल ही में देश में दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटी जो स्वतंत्र रूप से अलग-अलग घटित होते हुए भी उनका एक दूसरे से परस्पर सम्बंध है। एक घटना संसद के 60 वर्ष पूरे होने पर 13 मई 2012 को दोनों संसदो का संयुक्त विशेष अधिवेशन बुलाया जाकर एक प्रस्ताव पारित किया गया कि संसद की सम्प्रभुता और सम्मान के हर हालत में बनाएं रखना है। दूसरी घटना इसके कुछ समय पूर्व की ही है जब देश के जाने-माने कार्टुनिष्ट शंकर का संविधान बनाये जाने के संबंध में डॉ. भीमराव अम्बेडकर और अन्य व्यक्तियों से सम्बंधित कार्टून जो एनसीईआरटी की कक्षा 11 वी की किताब में 1996 से लगातार छपते आ रहा था के सम्बंध में तामिलनाड़ू की वीकेसी पार्टी के सांसद थिरूमा वलवन थोल द्वारा संसद मे आपत्ति उठाये जाने पर पूरी संसद किंकर्तव्यविमूढ़ होकर रह गई। उक्त कार्टून को डॉ. भीमराव अम्बेडकर का अपमान माना गया। मानव संसाधन मंत्री कपित सिब्बल ने उक्त कार्टून को एनसीईआरटी की किताब से तुरंत हटाने एवं उसके प्रसारण और प्रकाशन पर रोक लगा दी जिसमें समस्त दलों ने अपने-अपने वोट बैंक की रक्षा करने की अनुभूति कर राहत की सॉस महसूस की। यह कार्टून आज का नहीं था, डॉ. अम्बेडकर के जीवित रहते वर्ष 1949 में शंकर ने संविधान बनते समय बनाया था, प्रकाशित हुआ था जिस पर स्वयं डॉ. अम्बेडकर ने अपने जीवन में कोई आपत्ति नहीं की थी। 1996 में एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम में छपने पर वर्ष 2012 के इस घटना के पूर्व तक कभी कोई अम्बेडकर वादी या अन्य किसी भी नागरिक ने आपत्ति नहीं की। जो सही इसलिए भी कि वास्तव में उस कार्टून में न तो ऐसा कुछ था जिससे परम सम्माननीय डॉ. अम्बेडकर की प्रतिष्ठा पर आंच आती हो और न ही जन सामान्य ने उक्त कार्टून को इस तरह की भावना से लिया। एक सर्वकालीन श्रेष्ठतम संवैधानिकविज्ञ बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की प्रतिष्ठा का बेरोमीटर क्या एक कार्टून तक ही सीमित है? या क्या वे मात्र दलितों के नेता थे? जो लोग उक्त कार्टून की आलोचना उनकी अस्मिता के सवाल पर कर रहे है वास्तव में वे अपनी ही विश्वसनीयता खोते जा रहे है।
भारत रत्न डॉ. भीमराव अम्बेडकर की सर्वमान्यता, सर्वोच्चता निर्विवाद रूप से स्थायी रूप से स्थापित है जिस पर कभी भी कोई उंगली नहीं उठाई ही नहीं जा सकती है। डॉ. अम्बेडकर वे व्यक्ति थे जिन्होने उस संविधान का निर्माण संविधान सभा की अध्यक्ष की हैसियत से किया है जिसके ही द्वारा वर्तमान संसद का उद्भव हुआ जिसने साठ वर्ष की जयंती मनाई। साठ वर्ष का लम्बा समय अवश्य व्यतीत हो गया लेकिन इस संसद के पास 60 वर्ष की उपलब्धि के रूप में जयंती मनाने लायक क्या ऐसा कुछ है जिसके लिए इसका निर्माण हुआ? शायद इसीलिए इस अवसर पर खुशी मनाने के बजाय संसद सदस्यों को सबसे ज्यादा इस संसद के सम्मान व अस्तित्व की रक्षा की ही चिंता परिलक्षित हुई। अम्बेडकर का वह संविधान जिसने राष्ट्र के नागरिक अधिकार व नागरिकों के सम्मान की रक्षा के लिए व नागरिको के बेहतर नागरिक जीवन के लिए ऐसी संसद का निर्माण इसलिए किया कि वह नागरिक हितों को और उनके सम्मान को दृष्टी में रखते हुए कानून निर्माण का कार्य करेगी और कार्यपालिका उन कानूनों का पालन करवाकर अपने दायित्वों का वहन करेगी। लेकिन दूर्भाग्य का विषय है कि 60 साल व्यतीत हो जाने के बावजूद संसद अपना आत्मावलोकन करते समय अपने ही सम्मान और अस्तित्व की चिंता में ही उलझ कर रह गई। यह घटना वास्तव में यह सोचने पर मजबूर करती है कि लोकतांत्रिक संसदीय भारत आज कहां पर खड़ा है? हमें किस दिशा में जाना है? उसकी गति क्या होगी? स्वतंत्रता के 65 वर्ष व्यतीत होने के बावजूद यदि सत्ता का सर्वोच्च केन्द्र हमारी संसद मूलभूत बिंदु यह तय नहीं कर पाई है तो वास्तव में यह भविष्य के लिए ठीक संकेत नहीं है। वास्तव में हमें अपने अन्दर झॉकना होगा इस स्थिति के लिए मैं (हम नहीं) कितना जिम्मेदार हूं, सहयोगी हूं?
यह सिर्फ एक इत्तेफाक ही नहीं है कि इसी समय इस संसद को बनाने वाले संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर की प्रतिष्ठा पर कार्टून द्वारा तथाकथित हमला मानकर उक्त कार्टून के न समाप्त होने वाले अस्तित्व को समाप्त करने का असफल प्रयास किया गया। जिस संविधान ने यह सर्वोच्च संसद बनाई उसी संसद का यह दायित्व है कि वह उक्त संविधान की मूलभूत संरचना की रक्षा कर सके जिसमें भी वह असफल रही। वह तो धन्य हो उच्चतम न्यायालय का जिसने केशवानंद भारती के मामले में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि संविधान के मूलभूत आधार (बेसिक स्ट्रक्टचर) से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है। तदाुनसार समय-समय पर संसद द्वारा पारित विधेयक जो संविधान की मूल भावना के विपरीत थे उन्हे संविधान विरोधी घोषित कर अवैध ठहराया। ये घटनाएं वास्तव में हमारे ‘माथे’ पर इस बात का ‘बल’ पैदा करती है कि यदि हम हमारें स्वयं के द्वारा स्वीकृत हमारे ऊपर शासन चलाने वाली प्रणाली को साठ साल में मजबूती प्रदान नहीं कर पाये है, तो क्या समय का यह तकाजा नहीं है कि दूसरी संवैधानिक सभा का गठन किया जाकर एक बेहतर संसद बनाई जा सके? यदि हम मानते है कि उक्त संसद में तो कोई खोट नहीं है, प्रणाली में कोई खोट नहीं है, लेकिन उसको लागू करने वाले नागरिको के मन में जरूर खोट आ गया है! इच्छाशक्ति की कमीं हो गई है! दिशाहीन हो गये है! किंकर्तव्यविमुढ़ हो गये है! उनको सुधारने का उपाय उन सब त्रुटियों को दूर करने का क्या विकल्प हो सकता है? इस पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। जो भी स्थिति हो मात्र जागृत दिखने वाले (वास्तविकता में नहीं) देश को नींद से उठकर जागृत होने की आवश्यकता है। चाहे फिर हम सिस्टम को बदले या स्वयं को बदले। लेकिन परिवर्तन का भाव आज के समय की मूलभूत मांग एवं आवश्यकता है। वक्त की आवाज को यदि हमने नजर अंदाज कर दिया तो शायद हमारे पास वह समय भी नहीं रहेगा कि जब हम परिवर्तन के द्वारा स्थिति को सुधार सके और तब आने वाली पीढ़ी का हम सामना नहीं कर पाएंगे।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)
आपकी पोस्ट 24/5/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
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