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क्या आलोचना करना एक आम फैशन या स्टेटस सिंबल हो गया है?

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Photo: www.allvoices.com
राजीव खण्डेलवाल:
                        देश के किसी भी कोने में, जीवन के किसी भी क्षेत्र में जब भी कोई घटना घटती है तो मीडिया से लेकर, राजनेताओं, पत्रकारों, कलाकार, साहित्यकार, समाज सुधारक, धर्मगुरूओं तक अर्थात समस्त क्षेत्रों से घटना के बाद आजकल तुरंत प्रतिक्रियाएं नहीं आती है बल्कि आलोचनाएं आती है। अर्थात् आलोचना करना न केवल एक आम फैशन बन गया है बल्कि आजकल के सार्वजनिक जीवन का स्टेटस सिंबल भी माना जाने लगा है। किसी भी घटना को हम ले लें, उसकी आलोचना के रूप में तुरंत शासन-प्रशासन पर आरोप और यदि घटना राजनैतिक है तो पक्ष-विपक्ष द्वारा एक दूसरे की आलोचना सामान्य बात हो गई है। असम की घटना को ही ले लिया जाएं जिसमें एक टीनेजर बच्ची जन्म-दिन पार्टी से वापस जा रही थी। उसके साथ 20 लोगो के समूह द्वारा सार्वजनिक रूप से चलते फिरते कई लोगो की उपस्थिति में छेड़छाड़, दुर्वव्यवहार, बदसलूकी से लेकर उस पर हुए यौन आक्रमण की घटना की निंदा जितनी की जाए वह कम है। यदि इसी घटना को हम उपरोक्त परिपेक्ष में ले तो इलेक्ट्रानिक मीडिया द्वारा जिस तरह से पुलिस प्रशासन के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त कर आलोचना की गई है वह कोई नई बात नहीं है। पुलिस प्रशासन क्या सो रहा था? उसने कार्यवाही करने में देरी क्यों की? अपराधियों को कब तक पकड़ा जाएगा? चौधरी डीजीपी आसाम से तो एक चैनल द्वारा यह भी कहा गया कि आप वर्तमान कानून से बाहर जाकर अपराधियों को कैसे कड़ी से कड़ी सजा दिलाएंगे। अभी तक इस पर राजनैतिक रूप से कोई प्रारंभिक प्रतिक्रिया तुरंत नहीं आई है। लेकिन बात यदि उत्तर प्रदेश, बिहार या गुजरात जैसे संवेदनशील प्रदेश की होती तो शायद राजनैतिक आलोचनाओं का दौर भी तुरंत चालू हो जाता। घटना क्या है, घटना क्यूं हुई, इसे किस प्रकार से भविष्य में रोका जा सकता है, कम किया जा सकता है, आलोचना करने वालो को इससे कोई सरोकार नहीं होता है। उनको तो बस संस्थागत या राजनैतिक आरोप लगाने से ही मतलब होता है। चैनल द्वारा यह नहीं पूछा गया कि उक्त घटना के समय जो लोग तमाशाबीन होकर खड़े थे, गुजर रहे थे उनकी जिम्मेदारी क्या कुछ भी नहीं थी? क्या समस्त जिम्मेदारी मात्र पुलिस की ही थी जिसे यह मालूम था कि 19-20 अपराधियों ने पुलिस को पूर्व सूचना देकर धृणित घटना को अंजाम दिया। इस तरह के सवाल-जवाब पुलिस व मीडिया के बीच प्रायः हर अपराध घटित होने पर होता है।
                        चौधरी डी.जी.पी. आसाम प्रदेश का यह कथन है कि पुलिस एटीएम नहीं है। सत्य होते हुये भी एक तरफ उनकी खीज, असफलता व संवेदनहीनता को ही दर्शाता है तो दूसरी ओर आलोचको को भी आलोचना करते समय इस कटु सत्य को ध्यान में रखना होगा। सिर्फ चार आरोपी पकड़कर बाकी को अभी तक पुलिस ने क्यों नहीं पकड़ा, आलोचना करने वाले शख्स क्या यह बताने का कष्ट करेंगे कि पुलिस उन अपराधियों को सरेआम घूमने के बावजूद या उनकी ठौर-ठिकाना मालूम होने के बावजूद गिरफ्तार नहीं कर रही है? आलोचकगण मीडिया को या पुलिस को उनकी लोकेशन क्यों नहीं बता देते हे? जिससे पुलिस का कार्य सरल हो जाये। घटना के बाद पीड़िता या उसके घर वालो ने तुरंत घटना की रिपोर्ट क्यों नहीं की। चौथे दिन वीडियों जारी होने के पश्चात ही पुलिस का सक्रिय होना लाजिमी था तब तक क्या अपराधीगण आलोचको की नजर में शायद अपराध स्थल पर ही मौजूद रहते? यह वही पुलिस है जिसने पिछले 10 जून को मुम्बई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनल स्टेशन से अगुआ हुई 3 साल की मासूम बच्ची की सीसीटीव फुटेज के आधार पर जो कि घटना के लगभग 1 महीने बाद उन्हे दिये गये जिसके आधार पर अगले ही दिन बच्ची को हरिद्वार में बरामद कर लिया था।
                        जब हम यह जानते है कि सामान्य रूप से हमारा पूरा तंत्र लगभग सड़ा हुआ है, भ्रष्ट है, नैतिकता के मापदण्डो से हवाई कोसों दूर है, कर्तव्यच्युत है, लापरवाह है और न जाने इस तरह की कितनी ही ‘उपाधि’ दी जा सकती है। जिस पर सामान्य रूप से कोई विवाद नहीं है (अपवाद हर क्षेत्र में है)। इसके बावजूद जब आलोचनाओं का बाण छूटता है तो किसी भी आलोचक ने शायद ही कोई घटना पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते समय कहा हो कि उक्त घटना से बचा जा सकता था यदि ऐसा किया जाता, या भविष्य में इस घटना से बचा जा सकता है यदि ऐसा किया होता। यदि कोई सुझाव किसी आलोचक ने दिया भी तो वह सिर्फ पर-उपदेश के रूप में होता है। वह कितना व्यवहारिक है और आलोचक उस सुझाव पर कितना अमल करता है इस बात पर कभी गंभीरता से विचार ही नहीं हुआ। अपराधियों के वीडियो मीडिया में जारी होने के बावजूद भद्र समाज का कोई भी व्यक्ति उनकी पहचान लेकर पुलिस या मीडिया के सामने नहीं आया है न ही इस तरह के अपराधियों का सामाजिक बहिष्कार किया जाता है। क्या यह समाज के जाग्रत होने का संकेत है जो एक लड़की को रात्रि में अकेले जाने की अनुमति देता है? समाज में आये नैतिक पतन के संदर्भ में बागपत खाप पंचायत ने महिलाओं के संबंध में जो निर्देश जारी किये है वे प्रतिगामी होने के बावजूद उक्त घटनाओं को देखते हुए कितने प्रासंगिक है यह भी एक शोध का विषय हो सकता है जिसके लिये एक प्रथक लेख लिखा जा सकता है। 
                        जब कोई अपराधिक घटना होती है तो क्या अपराधी घटना की पूर्व सूचना पुलिस को देता है? सामान्यतः पुलिस को यदि मुखबीर से घटना के पूर्व सूचना प्राप्त होती तो क्या पुलिस उस पर कोई कार्यवाही नहीं करती है? क्या पुलिस के पास इतना फोर्स है, तंत्र है, यंत्र है कि वह सब जगह अपराध या हो सकने वाले अपराध पर प्रभावशाली नियंत्रण रख सके, रोक सके।  क्या नागरिको का कोई दायित्व नहीं है कि वे कोई भी सम्भावित आशंका से पुलिस को अवगत कराये? क्या जब कोई पत्रकार किसी घटना, अपराध की लाईव रिकार्डिंग करता है तो क्या उसका दायित्व नहीं होता है कि वह लाईव रिकार्डिंग करने के पूर्व वह तुरंत पुलिस को सूचित करें। लाईव रिकार्डिंग के बजाए घटना को रोकने में एक जागरूक नागरिक के कर्तव्य का निर्वाह करें? यदि वास्तव में पूरा समाज आंदोलित हो जाए, जागरूक हो जाए, कर्तव्य विवेक हो जाए तो निश्चित मानिये न केवल अपराधों की संख्या में गहरी गिरावट आएगी बल्कि तब फिर आलोचको को आलोचना करने के मौके भी कम ही मिलेंगे। आखिरकार पुलिस प्रशासन में हमारे बीच के लोग ही तो है जो हमारे समाज का ही भाग है। पुलिस का अपराध रोकने का विशिष्ट व एक मात्र महत्वपूर्ण दायित्व होने के बावजूद घटना के लिए मात्र पुलिस को उत्तरदायी ठहराना उपरोक्त संदर्भ में न तो उचित है और न ही सही है।
                        मेरा आलोचको से यह विनम्र अनुरोध है कि आलोचना करने के पहले देश के वर्तमान तंत्र की स्थिति को समझे और उससे भी पूर्व इस तंत्र में स्वयं का योगदान क्या है इसको भी समझे। यदि ऐसा हो गया तो हम वर्तमान स्थिति में तेजी से सुधार ला पाएंगे अन्यथा आलोचक चमकते रहेंगे। मीडिया बरसते रहेगा। दर्शक यह सोचकर कि यही हमारा नसीब है, मूक दर्शक बनकर देखते रहेंगे।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

One Response so far.

  1. सटीक लिखा है ..
    कोई भी काम नियम से नहीं हो रहा ..

    हमें दूसरों की गल्‍ती देखना बंद कर स्‍वयं अच्‍छी सोंच लानी चाहिए ..

    एक नजर समग्र गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष पर भी डालें

 
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