‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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माननीय जस्टिस कापड़िया का कथन बिल्कुल सही, भले ही देरी से!

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राजीव खण्डेलवाल
उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एच.एम. कापड़िया का यह कथन कि ‘‘जजों को देश नहीं चलाना चाहिए न ही उन्हे नीति बनानी चाहिए’’ बल्कि वे मात्र फैसला दे, भारत की न्यायपालिका के इतिहास में एक मील का पत्थर अवश्य सिद्ध होगा। पिछले कुछ समय से माननीय उच्चतम न्यायालय के विभिन्न विषयों पर जो निर्णय आ रहे थे उनके परिपेक्ष में उक्त कथन की आवश्यकता बहुत समय से महसूस की जा रही थी। यदि पाठकगण मेेरे पूर्व के लेखों को ध्यान में लाए तो मैने यही बात पूर्व में भी कुछ न्यायिक निर्णयों की समीक्षा-लेखा के दौरान की थी। वास्तव में उच्चतम न्यायालय का कार्य कानून की समीक्षा मात्र है उन्हे या तो वैध घोषित करें या अवैध। कानून निर्माण उनका कार्य नहीं है। कानून की कमियों की पूर्ति स्वयं न्यायपालिका कर रही है ऐसा निर्णयो से नहीं झलकना चाहिए। कानून को बनाने का कार्य विधायिका का है। ऐसी स्थिति में कोई और संस्था विधायिका या कार्यपालिका, न्यायपालिका को कानून बनाने से या न्यायपालिका द्वारा उक्त कमिंयो की स्वतः पूर्ति करने से (अवमानना के भय से) नहीं रोक पाती है तब खुद न्यायपालिका ही आत्म संयमित होकर इस तरह की प्रवृत्ति पर रोक लगा सकती है। यह पहल देश के माननीय मुख्य न्यायाधीश ने करके न केवल एक अच्छी शुरूआत की है बल्कि देश की न्यायपालिका को एक स्वच्छ व स्पष्ट संदेश भी दिया है। जब मुख्य न्यायाधीश ने अपना मत स्पष्ट रूप से प्रकट कर दिया है तो यह विश्वास है कि अब भविष्य में इस तरह की पुनरावृत्ति नहीं होगी। लेकिन इस तरह की स्थिति में अब यदि कार्यपालिका कानून की कमियांे की पूर्ती नहीं करती है जो न्यायपालिका अभी तक अपने निर्णयो द्वारा करती चली आ रही है तो नागरिको के मन में व्यवस्था के प्रति आक्रोश उत्पन्न हो सकता है। इससे अराजकता की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। पूर्व के निर्णयों मे भले ही न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर प्रश्नचिन्ह लगाया जाता रहा हों लेकिन जनभावना व उनके हितो के अनुरूप निर्णय होने के कारण आमजनो ने वे निर्णयो को विधायिका और कार्यपालिका के मनमाने तौर तरीके पर अंकुश की तरह मानते हुए उन्हे स्वीकार किया। खुद जस्टिश कापड़िया ने जो सोने का अधिकार, सुरक्षा के अधिकार, सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार के उदाहरण ज्यूरिसपडेंस आफ कांस्टिट्यूशनल स्ट्रक्चर विषय पर व्याख्यान देते हुए दिया। इसमें उनकी साफ विनम्र व न्यायिक अहंकार-रहित सोच झलकती है। उच्चतम न्यायालय ने अभी कुछ समय पूर्व ही शेरो की घटती हुई संख्या के कारण टाइगर टूरिज्म पार्क एवं फारेस्ट क्षेत्र में विकसित पर्यटन केंद्रो में कुछ प्रतिबंध लगाये जिसमें हमारे प्रदेश का पचमढ़ी क्षेत्र भी शामिल है जिसके कारण पर्यटन उद्योग चौपट होने की नौबत आ गई हैं और कई लोग बेरोजगार भी हो गये है। यदि सरकार किसी भी विद्यमान कानून का उल्लंघन कर रही हो तो उसके लिये उसे अवश्य दंडित किया जाना चाहिए। यदि पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कोई कानून की आवश्यकता है या कानून में कोई कमिया है तो न्यायपालिका उक्त कमियो की पूर्ति निर्णयो द्वारा स्वयं करने के बजाय उक्त कार्य को जनता, विधायिका, कार्यपालिका पर छोड़ देना चाहिये। तदानुसार विधायिका व कार्यपालिका यदि अपने दायित्व का पालन नहीं करती है तो जनता जनतंत्र का दबाव जो लोकतंत्र में एकमात्र हथियार है बनाकर सरकार को उस दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित कर सकती है। पर्यावरण या लुप्त होते शेरो की सुरक्षा किसी भी सरकार का मौलिक दायित्व होना चाहिए, और है। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने सरकार के एक नीतिगत निर्णय के समान निर्णय देकर अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण ही किया था। यद्यपि वह देशहित में हो सकता है लेकिन क्या वह न्यायिक सीमा के अंतर्गत है यह एक सोचनीय प्रश्न हो सकता है। हाल ही में बैतूल से संबंधित जन संगठनों के सदस्यों को प्रताड़ित किये जाने के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार को शिकायत निवारण प्राधिकरण गठन करने के निर्देश दिये है जो उपरोक्तानुसार अतिक्रमित अधिकार क्षेत्र का ही सूचक है। अतः माननीय मुख्य न्यायाधीश का उपरोक्त मत स्वागत योग्य है व इसकी खुले मन से प्रशंसा की जानी चाहिए कि एक न्यायाधीश ने अपने ही अतिक्रमित अधिकारों को जिनको जनता ने मान्य किया, स्वीकार किया यह कहकर कि वे संवैधानिक नहीं है खुद त्याग किया है, वह भविष्य में न्यायालय के निर्णय को और अधिक संवैधानिक बनाने में सार्थक सिद्ध़ होंगा।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)
 
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