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बेचारा! पुतला कही का!

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रोज जलता है, फिर भी जिंदा है। खामोश रहता है, फिर भी चर्चाबिंदु है।

कृष्णा बारस्कर:
                          कुछ दिन पहले मैं एक नामी गिरामी संगठन के साथ स्वदेशी आंदोलन के अंतर्गत एफडीआई (देश के खुदरा व्यापार में सीधा विदेशी निवेश) के विरोध में पुतला दहन कार्यक्रम में होकर आया हूं। लगभग 100-150 लोग जमा हुए। थोड़ी देर नगर के चौक-चौराहो से गाड़ियो की रैली निकाली अंत में नगर के मुख्य चौराहे पर जमा हुए। वहां सरकार, एफडीआई, महंगाई के विरोध में खूब नारे लगाये गये।

कुछ विदेशी सामानों के ढेर जमा किये गये और उसके बाद एक चार-पहिया वाहन से एक पुतला निकाला गया। उस पुतले के साथ ही बहुत सारे विदेशी खुदरा सामान जैसे कि शैंपू, साबून, बिस्कुट, चॉकलेट, चिप्स, कुरकुरे, पेप्सी, कोक आदि भी जमा किये गये।

पुतले सहित समस्त सामग्री चौक के बीचोंबीच रखी गई, उसे जूतों की माला पहनाई गयी। विदेशी सामान का प्रतीक होने के कारण उसपर खूब गुस्सा निकाला गया! कुछ लोग तो एफडीआई रूपी उस पुतले पर गुस्से से इतने अधिक लाल-पीले थे कि उन्होने दो चार जूते-चप्पल-सेंडिल भी उस पुतले पर धर दिये। कुछ लोगो का मन केडबरी डैरीमिल्क (चॉकलेट) पर ललचाता भी नजर आया।

कुछ देर तक भाषण बाजी हुई, फोटोग्राफी हुई और एक बॉटल से पेट्रोल निकाला गया और पेट्रोल डालकर उसे जला दिया गया। धू-धूकर जलते विदेशी सामान और एफडीआई का रूप धरे पुतले को देखकर लगा कि मानों एफडीआई नाम का जिन्न आज जलकर भष्म हो गया और अब वह अपने देश के आम नागरिको को नहीं डराएगा और न ही कोई विदेशी कंपनी अब देश में मल्टीशॉपिंग स्टोर खोलेगी।

एक पुतला एक गधे तुल्य महानः-
फिर मुझे याद आया कि कुछ दिन पूर्व ही मैं कई अन्य संगठनों के साथ महंगाई, भ्रष्ट्राचार, आतंकवाद, कुशासन आदि-आदि कुरीतियों के पुतले बनाकर जला चुका हूं। मैं सोचता हूं कि एफडीआई, महंगाई, भ्रष्ट्राचार, आतंकवाद, कुशासन तो हमारी निकम्मी सरकार की ही देन है, उसीका किया धरा है फिर उस बेचारे पुतले का क्या कसूर? उसे क्यूं बार-बार जलाकर तकलीफ दी जाती है।

जिन लोगो का प्रतीक बनकर वह लात-जूते खाता है, गुस्सा झेलता है, जल-जलकर इतना दर्द और अपमान बरदास्त करता है? क्या वे बुराईया या लोग पुतले क साथ कभी जले है? या क्या कभी उन बुराईयों का खात्मा हुआ है? जिस विदेशी सामान की हम होली जलाते है, घर वापस पहुंचकर क्या हमने उनका बहिस्कार किया है कभी? सवाल तो बहुत है जवाब मिलते ही कहा है? मिले भी तो कम ही मिलते है। मुझे तो आज के जमाने में ‘पुतला’ उसी महान परोपकारी ‘गधे’ तुल्य नजर आता है।

गधा वह महाप्राणी है, जिससे सामान्यतः किसी भी व्यक्ति चाहे वह निकम्मा हो, कम दिमाग वाला हो, आलसी हो, नालायक हो चाहे मुर्ख हो उसकी तुलना कर दी जाती है। वो बेचारा बिना किसी ना-नुकुर के परस्वार्थ भावना से हमारे मान सम्मान का खयाल करके अपनी बेईज्जती बरदास्त कर लेता है।

जबकी सब जानते है कि आज दुनिया का सबसे मेहनती प्राणी गधा ही है, यकीन नहीं आये तो कोई उसके इतना सामान ढोकर दिखाए! उसके इतना अपमान सहकर दिखाये? फिर भी गधा तो गधा ही है न। चुंकि वह शहनशील है, धैर्यवान है, और समझदार भी है, इसलिए वह सबके बदले की उलाहना खुद सुनकर भी अपना काम करता रहता है।

खयाल एक और महान पुतले काः-
फिर मेरे खयाल में आया कि हमारे देश में एक और महान ‘पुतला’ भी तो है। जो देश के पूरे राजनैतिक धरातल का केन्द्र बिन्दु है। जो एक गठबंधन सरकार का प्रतीक बनकर देश की जनता के न जाने कितने ही जूते-चप्पल-सेंडिल खा रहा है। उसे एफडीआई, महंगाई, भ्रष्ट्राचार, आतंकवाद, कुशासन के प्रतिशोध में जनता जूते-चप्पल पहनाकर रोज जलाती रहती है। फिर भी देखो ढीठ! कितनी ही बुराईया, गालिया खाकर भी वो अपने साथियों की ढाल बना हुआ है।

बिल्कुल उसी महान ओरिजनल ‘गधे’ की तरह जो सबसे मेहनती होते हुए भी भ्रष्ट्राचारियों, निकम्मों, कम दिमाग वालोे, आलसियो, नालायकों, मुर्खो, बद्दिमाग आदि-आदि लोगो तुलना के अपमान का बोझ सहकर उनकी ढाल बना रहता है। चलो... फिर भी ये ‘गधा’ उसी महान ‘गधे’ की तरह सहनशील है, धैर्यवान है और समझदार होने के कारण अपने सब साथियों के बदले की उलाहना खुद सुनकर भी अपना काम करता रहता है। वैसे इसने किया ही क्या है? बेचारा! सोनिया माता का ‘गधा’! पुतला कही का!

अब आते है हकीकत के धरातल देखेः-
हम जिस स्वदेशी आंदोलन में शामिल हुए थे वहा से हमें जिस फोन के माध्यम से बुलाया गया। वो मोबाईल फोन था नोकिया (फिनलैंड की कंपनी का उत्पाद), दोबारा जिस फोन से रिमाइंड कॉल किया गया वह सेमसंग (जो कोरिया की कंपनी) का था। कमाल की बात यह थी कि उनमें से एक मोबाईल में वोडाफोन (इंग्लैण्ड) की सिम लगी थी। जो मोबाईल फोन हमने पकड़ रखा था वो था चाईनीज फोन जिसका कोई ब्रांड नाम नहीं होता, हां उसमें सिम जरूर रिलायंस (स्वदेशी) की थी।

जिस गाड़ी से मैं रैली में भाग लेने गया वो गाड़ी सुजुकी जियस (जापान) की थी। उसमें डाला गया पेट्रोल विदेश (सऊदी अरब) से खरीदा जाता है। बहुत से लोग जिन गाड़ियों पर सवार थे वे गाड़िया हीरो-होंडा, हांेडा (जापानी), सुजुकी (जापानी), मारूती (जापानी), यामाहा (जापानी) आदि विदेशी थी।

जिस गाड़ी में पुतला लाया गया वह मारूती (जापानी कंपनी) द्वारा निर्मित कार थी। जो लोग उसमें शामिल हुए थे उनमें ज्यादातर के पहने हुए जीन्स, टी-सर्ट और कपड़े विदेशी (अमेरिकी स्टाईल) थे, उनके हाव-भाव, चाल-ढाल, पहनावा, दिखावा सब विदेशी टाईप का! रैली में मुझे तो हर चीज जलाने लायक ही लगी।

बस,,,, एक ही वस्तु दिखी जो सुद्ध स्वदेशी थी और जलाने लायक भी नहीं लगी, वह थीः- देशी चिंदियो से बना ‘पुतला’! हमारे  म..न...मो...ह...न सिं...ह.. का।

(आखो देखा सत्य लेकिन व्यंग)

4 Responses so far.

  1. विचारणीय ..... एक ओर हम विदेशी वस्तुओं का प्रयोग धड़ल्ले से कराते हैं और दूसरी ओर उसी का बहिष्कार भी ...

  2. मैं सोचता हूं कि एफडीआई, महंगाई, भ्रष्ट्राचार, आतंकवाद, कुशासन तो हमारी निकम्मी सरकार की ही देन है, उसीका किया धरा है फिर उस बेचारे पुतले का क्या कसूर? उसे क्यूं बार-बार जलाकर तकलीफ दी जाती है।.................वाह क्या खूब लिखा है 100 % सही बात कही जरूरी नहीं की हम अगर सड़क में निकल कर किसी बात का समर्थन या विरोध कर रहे हो तो घर के अंदर उस बात पर अमल कर रहे हों आजकल तो ये सब नारे बाज़ी एक खेल हो गया है मिडिया के सामने आना है तो चलो कोई मुद्दा उठा लो और या फिर पैसा कम लो बहुत सुन्दर पोस्ट बहुत अच्छे |

  3. बहुत बहुत उम्दा लेख |नसीहत देता हुआ \
    आशा

  4. KAVITA says:

    बहुत खूब ..खरी खरी कह दी आपने ..
    क्या करें ..पुतलों पर ही ही बस चलता है बस...
    बहुत सुन्दर सामयिक चिंतनशील प्रस्तुति

 
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