राजीव खण्डेलवाल:
‘‘मैं आम आदमी हूं’’ के जयघोष एवं ‘टोपी’ के साथ अरविंद केजरीवाल ने नई पार्टी बनाने की घोषणा बिना ‘‘विश्वास’’ (कुमार) के कर दी। जब घोषणा के समय ही विश्वसनीय साथी रहे का विश्वास अरविंद अर्जित नहीं कर पाये जो शायद ‘‘आम’’ आदमी अरविंद केजरीवाल की नजर में नहीं थे इसलिए उन्होने ‘आम‘ आदमी के समर्थन की अपील की। आखिरकार इस देश में राजनीति तो वास्तव में ‘आम’ आदमी ही कर रहा है या ‘आम’ आदमी के नाम पर ही हो रही है? क्या अब भी यह एक प्रश्नवाचक चिन्ह है? हर राजनैतिक नेता के मुख से हमेशा ‘आम’ आदमी की बात ही निकलती है। अरविंद केजरीवाल ने भी इसी का अनुसरण किया है, इससे इतर वे कुछ नयापन नहीं दिखा पाये जिसकी उम्मीद उनसे की जा रही थी। अन्ना आंदोलन की सुरूवात ‘‘मैं हूं अन्ना’’ टोपी के साथ शुरू हुई थी। नये समीकरणों के साथ ही केजरीवाल द्वारा उस टोपी को ‘‘मैं आम आदमी हूं’’ टोपी में परिवर्तित कर दिया। क्या अब अन्ना ‘‘आम’’ आदमी नहीं रहे? इसका जवाब भी केजरीवाल को देना होगा! यदि वास्तव में केजरीवाल ‘आम’ आदमी है, ‘खास’ नही तो वास्तविक ‘‘आम’’, ‘‘खास’’ कब होगा यह गहन शोध का विषय हो सकता है।
केजरीवाल एवं सहयोगियों द्वारा ‘राजनीति’ वास्तव में ‘आम’ आदमी को ‘खास’ बनाने के लिए की जा रही है, या ‘खास’ आदमी को ’आम’ बनाने के लिए की जा रही है, यह भी शोध का विषय हो सकता है। वैसे भी देश में ‘आम’ काफी प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय है क्योंकि वह अपनी ‘मिठास’ और स्वादिष्ट ‘स्वाद’ के लिए जाना जाता है। हमारे देश में ‘आम’ को श्रेष्ठ फल माना गया है। यह ‘आम’ ‘आम’ होकर भी ‘खास’ बनकर खास व्यक्तियों के बीच का ‘आहार’ बनकर रह गया है। मुम्बई का हाफुज ‘आम’ विश्व प्रसिद्ध है लेकिन उसकी पहुंच कुछ ‘खास’ लोगो तक ही सीमित है। केजरीवाल शायद इस ‘आम’ और ‘खास’ के अंतर को समझ लेते दिशा को समझ लेते तो वह यह प्रारंभिक भूल पार्टी बनाते समय नहीं करते जो उन्होने कर ली है।
राजनैतिक पार्टीयॉ ‘लोकतंत्र’ की ‘जड़’ है, ‘आत्मा’ है, ‘केंद्र बिन्दू’ है, इससे कोई भी व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता है। यद्यपि अन्ना संसदीय लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने के बावजूद इससे इनकार कर रहे है। उन्होने कहा है कि राजनीति बहुत गंदी हो गई है व वे राजनीति में नहीं आना चाहते है, यद्यपि प्रारंभ में राजनैतिक विकल्प का उन्होने समर्थन किया था। वास्तव में आवश्यकता नई राजनैतिक पार्टी बनाने की नहीं है। बल्कि राजनीति में नैतिक मूल्यों में आयी गिरावट को रोकने की है जो वर्तमान परिस्थितियों को बदले बिना सम्भव नहीं है। यदि कीचड़ से सने तालाब को साफ किये बिना चाहे उसमें कितनी ही स्वच्छ एवं सुन्दर चीजे फेंकी जाये वे गंदी ही होकर निकलेगी। फिर अरविंद केजरीवाल ऐसा कौन सा नया ‘आम’ लेकर आये है? यह भी विचारणीय है। आवश्यकता है ऐसे अस्वच्छ तालाब को साफ करने की, राजनीति के समूचे परिवेश को बदलने की! स्वस्थ परिवेश लाने की है! एक ऐसा स्वच्छ एवं सुन्दर राजनैतिक ‘तालाब’ (प्लेटफार्म) बनाने की जिसमें यदि कोई भी गंदी चीज फेंकी भी जाए तो वह कुंदन बन जाए। जिससे कोई भी आम नागरिक जब राजनैतिक धरातल पर कदम रखने के बारे में सोचे तो उसकी अंतर्रात्मा में देश सेवा की भावना हो न कि पद और प्रतिष्ठा का लालच। यदि इस बात को केजरीवाल और उनके सहयोगियों, पढ़े लिखे बुद्धिजीवियों ने समझी होती तो वह गलती नहीं करते जिससे अन्ना ने अपने आप को दूर रखकर अपने आपको बचा लिया।
देश के स्वर्णीम अतीत में जाकर देखे तो स्वतंत्रता आंदोलन से उत्पन्न कांग्रेस उसके बाद लोकनारायण जयप्रकाश आंदोलन के परिणाम से उत्पन्न जनता पार्टी सहित न जाने कितने ही जनआंदोलनो ने राजनैतिक मोड़ लेकर कई पार्टियां बनी, अरविंद जैसे कई नायक निकले पर क्या वे देश की दशा-दिशा को मोड़ पाये? देश में स्वतंत्रता प्राप्ति से अब तक 6 राष्ट्रीय 23 क्षेत्रीय मान्यता प्राप्त सहित 1308 गैर मान्यताप्राप्त राजनैतिक पंजीयत पार्टिया ‘आम’ लोगो के हितार्थ बनाई गई। जिनके मूल उद्देश्य या उनके संविधान को उठाकर देखा जाए तो कोई भी पार्टी ऐसी नहीं मिलेगी जो ‘खास’ लोगो के हितो को ध्यान मे रखकर बनायी गई हो, सभी ‘आम’ लोगो के हितार्थ ही कार्य करने हेतु वचनबद्ध है।
जहां तक एजेंडे की बात है केजरीवाल द्वारा जारी किये गये एजेंडे में जो सबसे महत्वपूर्ण एजेंडा जो किसी अन्य पार्टी में शामिल नहीं था और उन्हे शामिल करना चाहिए था वह यह हैं कि मैंने जो भी दस-बीस सुत्रीय एजेंडा जारी किया है वह इतना वास्तविक है कि उसको सौ प्रतिशत लागू किया जा सकता है। उसको सौ प्रतिशत लागू करने के लिए मैं और मेरी टीम के प्रत्येक सदस्य अपनी सौ प्रतिशत क्षमता से कार्य करेंगे। यदि यही वचनबद्धता भी जनता के सामने आ जाती (जिसके वचनपालन का आकलन भविष्य में अवष्य होगा) तो वास्तव में केजरीवाल की पहचान एक अलग ‘आम’ के रूप में होती। लेकिन शायद ‘आम’ के चक्कर में केजरीवाल जो देश में आम ढर्राशाही, लाल फीताशाही चल रही है उसी ‘आम’ को अपनाने जा रहे है। क्योंकि वर्तमान लोकतंत्र ‘मुंडियो’ की संख्या गिनने पर टिका हुआ है। यदि हमें ‘मुंडिया’ गिनवानी है तो वर्तमान ‘आम’ को अपनाना ही पड़ेगा। अन्ना को साधुवाद दूंगा कि उन्होने इस ‘आम’ के पीछे की असफलता को पढ़ लिया और अपने आप को इस राजनीति से न केवल अलग कर लिया बल्कि अपना एक अलग रास्ता पर चलने का फैसला किया जिस पर वे पूर्व से ही चलते आ रहे है। शायद देश के ‘आम’ नागरिक के पास सिर्फ वक्त का ही इंतजार करने के अलावा कोई चारा भी नहीं बचा है। ।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)
आम आदमी का खास अन्दाज!