कृष्णा बारस्कर:
Photo: hindustantimes |
हमारे देश में स्वतंत्रता आंदोलन सहित देश और जनहित में जितने भी आंदोलन हुए है उनके परिणाम निश्चित ही राष्ट्रहित में आये है। इसीके के साथ ऐसे आंदोलन से देश को ऐसे ‘जननायक’ भी मिले है, जिन्होने एक तरफ तो ‘आंदोलन’ के ‘सारथी’ और ‘पहिए’ बनकर उसे चरम पर पहुंचाने में अपनी भूमिंकाए अदा की, वहीं ‘आंदोलन’ की सफलता के बाद अपनी भूमिंकाओं में बदलाव कर ‘आंदोलन’ से प्राप्त परिणाम को को सही दशा और दिशा देने में भी अपना योगदान दिया। स्वतंत्रता संग्राम के बाद जहां ‘पंडित जवाहरलाल नेहरू’ ‘सरदार वल्लभ भाई पटेल’ जैसे नेता नेतृत्व मिले जिन्होने ‘महात्मा गांधी’ के महान ‘स्वतंत्रता आंदोलन’ से प्राप्त ‘स्वतंत्रता’ और उसके मूल उद्देश्य को अपनी निगरानी में सम्पूर्ण देश में स्थापित किया।
आम से ख़ास का सफ़र:
देश में हाल में समाजसेवी अन्ना हजारे ने तीन वर्ष का लम्बा और कठिन संघर्ष कर बहुत बड़ा आन्दोलन खड़ा कर देश को लोकपाल कानून दिया। जिसका मूल उद्देश्य लोकसेवको के भ्रष्ट आचरण, कुशासन को समाप्त किया जा सके और शासन प्रणाली को जवाबदेह और पारदर्शी बनाया जा सके। इस ‘आंदोलनरूपी’ रथ पर सवार ‘अन्ना’ के लिए स्वामीं रामदेव, अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, जनरल वी.के. सिंह जैसे सारथी और पहियों ने महती भूमिंका निभाई। इस आंदोलन ने जहां स्वयं ‘अन्ना’ की राष्ट्रीय छवी बनाई वहीं इससे जुड़े बहुत से कार्यकर्ता ‘जननायक’ बनकर उभरे। एक ‘जननायक’ ‘अरविंद केजरीवाल’ जो ‘अन्ना’ आंदोलन की मुख्य धूरी माने जाते थे उन्होने ‘अन्ना’ अन्ना के ‘लोकपाल आंदोलन’ कोे दो भागों में बांट दिया। जिसमें टीम अन्ना का ‘गैर राजनीतिक आंदोलन’ और ‘टीम अरविंद की राजनैतिक पार्टी’। अगर मूल पर ध्यान दे तो दोनों ही टीमों का मकसद और उद्देश्य एक ही था, अंत में कामयाबी आई ‘टीम अन्ना’ के रास्ते। अब टीम अरविंद इस कामयाबी से खुस नजर नहीं आती, उनकी महत्वाकांक्षाए जनलोकपाल से कही आगे की हैं। आज टीम केजरीवाल जिस प्रकार का आचरण कर रही है उनपर देश पर ‘अधिनायवाद’ (डिक्टेटरशिप), एकाधिनायकवाद या ‘तानाशाही’ थोपने के आरोप लग रहे है।
अरविंद और अधिनायकवादः
‘‘तानाशाही या अधिनायकवाद से आशय उस शासन-प्रणाली से हैं जिसमें कोई व्यक्ति विद्यमान नियमों की अनदेखी करते हुए डंडे के बल से शासन करना चाहता है। उसकी मंशा होती है कि संपूर्ण राजनीतिक शक्ति न केवल उसी के संकल्प से उद्भूत हो वरन् कार्यक्षेत्र और समय की दृष्टि से असीमित तथा किसी अन्य सत्ता के प्रति उत्तरदायी नहीं हो और वह उसका प्रयोग बहुधा अनियंत्रित ढंग से विधान के बदले आज्ञप्तियों द्वारा करे।’’ इस बात में कोई शक नहीं है कि ‘अरविंद’ ‘अन्ना आंदोलन’ से उभरे ‘जननेता’ है। आज वे एक ‘जननायक’ बनकर उभरे है, जनता का समर्थन उनके साथ है और वे आज मुख्यमंत्री जनसमर्थन से ही बने है। इसलिए उनपर एकाधिनायकत्व, अधिनायकवाद या डिक्टेटरशिप के आरोप लगाना एक बारगी उचित नजर नहीं आता। परन्तु यदि संदर्भ देखे तो ‘एकाधिनायकवाद’ रोम में ज्यादा प्रचलित था जहां ‘‘संकटकालीन स्थिति में किसी एक व्यक्ति के अस्थायी रूप से असीमित अधिकार प्राप्त कर लेने से था।’’ ‘अरविंद केजरीवाल’ का वर्तमान में दुनियां के सबसे अहम लोकतांत्रिक देश में ‘आचरण’ और ‘मंशा’ का जिस प्रकार प्रदर्शन है, उनपर अधिनायवाद के लगे आरोपों को नकारने की मानसिकता नहीं बनने देते।
एकाधिनायकवादी सोचः
वर्तमान चुनाव में दिल्ली के 30 प्रतिशत मतदाताओं ने अरविंद केजरीवाल और उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ को अपना समर्थन दिया है। वहीं भारतीय जनता पार्टी को 33 और कांग्रेस को 25 प्रतिशत मतदाताओं ने अपना मत दिया। इस मतदान को ‘केजरीवाल’ नकारते है, वे जनता द्वारा चुने हुए विपक्षी पार्टियों के सभी ‘जनप्रतिनिधियों’ को अयोग्य बताने से नहीं चूकते। यहीं नहीं वे इन्ही 30 प्रतिशत मतों के दम पर ‘सम्पूर्ण राष्ट्र’ के ‘मतदाताओं’ द्वारा दिये गये ‘जनादेश’ को भी नकारने की हिम्मत कर बैठते है। वे विपक्ष की पार्टियों को सिरे से खारीज करते हुए उन्हे ‘राष्ट्रविरोधी’ ‘भ्रष्ट्राचारी’, चोर, गुण्डे और ‘दलाल’ कहते है।
‘अरंविद’ विपक्षी पार्टियों के कार्यकर्ताओं से आव्हाहन करते है कि वे अपनी-अपनी पार्टियां छोड़कर उनकी पार्टी में शामिल हो जाये। यह कहते हुए वे भूल जाते है कि किसी भी पार्टी का संविधान या उसके मूल उद्देश्य कभी ‘राष्ट्रविरोधी आचरण’ के समर्थक नहीं हो सकते, हां पार्टियों में शामिल कुछ लोग जरूर ऐसा आचरण कर सकते है। विपक्षी पार्टियों के लोगो को अपनी पार्टी में आमंत्रित करते हुए वे यह अनुमान नहीं लगा पाते की उनकी ‘पार्टी’ में भी कुछ लोग जो आयेंगे वे भ्रष्ट्र हो सकते है। अरविंद विपक्षी पार्टियों के अच्छे हो या जनहित के हो सभी मुद्दो को खारीज करते हुए सिर्फ और सिर्फ अपने मुद्दो को लोकहितैशी मानते है। हाल ही में संसद में पास किया गये ‘लोकपाल’ को अस्वीकार किया जाना ताजा उदाहरण है। वे अपनी सभाओं में भाषण देते हुए कई बार किसी ‘तानाशाही सम्राट’ की तरह नजर आते है, जो अपने हिसाब से देश और लोकतंत्र चलाना चाहता है।
स्वघोषित लोकपालः
अरविंद केजरीवाल अपनी जनसभाओं में खुलेआम कहते है कि देश के सभी नेता ‘राष्ट्रविरोधी’ ‘भ्रष्ट्राचारी’, चोर, गुण्डे और ‘दलाल’ है, और सारे नेताओं को जेल में डाल देने की बात करते है। ऐसा कहते हुए वे यह भूल जाते है कि वे भी इसी व्यवस्था का हिस्सा है, वे भी एक ‘नेता’ है। जब उनपर और उनके साथियों पर भ्रष्ट आचरण के आरोप लगाये जाते है तो वे खुद के आंतरिक कमेटी से जांच कर अपने लोगो को निर्दोश बता देते है, और इस तरह वे देश में ‘लोकपाल की प्रासंगिता’ पर प्रश्नचिन्ह उठा देते है। चुनावपूर्व ‘आप’ के कुछ नेताओं पर हुए ‘स्टिंग ऑपरेशन‘ और भ्रष्ट आचरण के दोषारोपण पर उनके द्वारा ‘स्वघोषित आंतरिक कमेटी’ द्वारा जांच करवाया जाना और उस कमेटी द्वारा अपने सदस्यों को ‘त्वरित क्लीनचिट’ दिया जाना इसका उदाहरण है। जिस नेता का उदय ही ‘लोकपाल’ कानून लाकर लोकसेवको का भ्रष्ट आचरण, कुशासन खतम कर जवाबदेही तय कर स्वच्छ प्रशासन देने को लेकर हुआ हो उसका अपने और पराये में भेदभाव करना, बहुत से प्रश्न उत्पन्न करता है।
राजनैतिक कुण्ठाः
‘अरविंद’ अपनी जनसभाओं में अपने विरोधियों के लिए सबसे ‘निम्न स्तर के शब्दो का प्रयोग करते हुए जब आलोचना करते है तो न तो किसी ‘जननेता’ के उम्र का लिहाज करते है और न ही उनकी छवी का। कई बार उनकी भाषा का स्तर ‘गली स्तर’ का और ‘राजनैतिक कुण्ठाग्रस्त’ लगता है जिसमें वे अपनी पूरी ‘कुण्ठा’ विरोधियों को गालियां देकर निकाल देना चाहते है। वे बिना किन्ही तथ्यों के नेताओं के नाम लेकर व्यक्तिगत आक्षेप सहित अनर्गल आरोप, प्रत्यारोप लगाने से नहीं चूकते। वे अपनी स्वयं की पार्टी के सदस्यों को छोड़कर कभी किसी जननेता की तारीफ करते नजर नहीं आते। वे स्वयं की आलोचना कभी बरदास्त नहीं करते और उसे रोकने की पूरी कोशीष करते है चाहे उसके लिए अदालत का सहारा लेना हो या मीडिया पर दबाव ही क्यों न बनाना पड़े, वे विरोधीयों की तारीफ कभी बरदास्त करते नजर नहीं आते, चाहे विरोधी कितना भी योग्य क्यों न हो।
और अंततः
‘जनलोकपाल’ जैसे अहम मुद्दे पर जन्म लेने वाली ‘अरविंद केजरीवाल’ की ‘आम आदमी पार्टी’ आज उद्देश्य पूरे होने के बाद भी अपना अस्तित्व बचाये रखना चाहती है। चाहे इसके लिए उसे अपने उद्देश्यों में बदलाव ही क्यूं न करना पड़े। आज वे ‘जनलोकपाल बिल’ के इतर प्रशासन की पुरानी, जीर्ण व्यवस्था की असफलता, कुशासन, भ्रष्ट आचरण का नवीन व्यवस्था के लिए उसके ध्वंस की पूर्वकल्पना के नये उद्देश्य के साथ मैदान में है और ऐसी ही आशा की किरण दिखाकर जनता का समर्थन भी हासिल करने में कामयाब रहे है। परन्तु उन्हे यह ध्यान रखना चाहिए जब एक ‘जननेता’ ‘जनप्रतिनिधी’ बनकर ‘सत्तासीन’ होता है तो वह केवल अपने समर्थकों का ही नहीं वरन् अपने क्षेत्र के सम्पूर्ण मानव समाज का ‘मुखिया’ होता है, चाहे उसमें पक्ष हो या विपक्ष।
एक मुखियां अपने परिवार के लिए पितातुल्य होता है, अगर अपने किसी पुत्र में कोई बुराई है तो उस बुराई को दूर करने की कोशीश करता है न कि इसके लिए पूरे परिवार को ही सजा देने की बात करे। अरविंद का जनविरोधी मुद्दों और कार्यो का खात्मा करने का उद्देश्य जरूर स्वागत योग्य है। परन्तु न तो उन्हे जनता द्वारा दिये गये ‘जनादेश’ को नकारने का अधिकार है और न ही उन्हे यह अधिकार है कि वे भ्रष्ट्राचारियों और कुशासन के लिए देश के विभिन्न समाजो या वर्गाे को ही पूर्णतः दोषी ठहराने का। उन्हे एक परिवार का मुखिया बनकर दिल्ली का शासन चलाना चाहिए न की एक ‘स्वघोषित’ ‘अधिनायकवादी’ ‘लोकपाल’ ‘प्रशासक’ बनकर।
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