राजीव खण्डेलवाल:
माननीय उच्चत्तम न्यायालय के पूर्व सेवानिवृत न्यायाधीष एवं पष्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस ऐ. के. गांगुली पर उनकी एक महिला ला इंटर्न (प्रषिक्षु) द्वारा यौन शोषण का आरोप लगाया गया था। इसकी जांच स्वप्रेरणा से माननीय उच्चत्तम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीष द्वारा तीन सदस्यीय कमेटी बनाकर कराई गई जिसकी रिपोर्ट आज प्रकाषित हुई है। इसमें कमेटी ने प्राथमिक जॉच में जस्टिस गांगुली पर लगे यौन शोषण के आरोप को प्रथम दृष्टाया सही पाया है। लेकिन सबसे आष्चर्यजनक बात जो उच्चत्तम न्यायालय ने इस प्राथमिक जांच रिपोर्ट पर विचार करने के पष्चात कही है वह यह कि न्यायाधीषों की बैठक बुलाकर माननीय उच्चत्तम न्यायालय ने यह निर्णय लिया है कि घटना के वक्त जस्टिस गांगुली न तो उच्चतम न्यायालय की सेवा में थे और न ही ला प्रषिक्षु का कोई संबंध उच्चत्तम न्यायालय से था और न ही वह उच्चत्तम न्यायालय में वह प्रषिक्षु थी। इसलिये माननीय उच्चत्तम न्यायालय ने यह कहा कि वह अपनी आरे से कोई कार्यवाही नहीं करेंगा । माननीय उच्चतम न्यायालय की उक्त प्रकरण की यह समीक्षा अत्यंत आष्चर्यजनक व हतप्रत करने वाला निर्णय बुद्धिजीवी नागरिको के बीच महसूस हुई।
वास्तव में माननीय उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय न्याय व्यवस्था को हिला देने वाला और उच्चत्तम न्यायालय के प्रति अभी तक पैदा हुये विष्वास में एक प्रष्न चिन्ह अवष्य लगायेगा? क्या यह वही उच्चतम न्यायालय नही है और क्या जनता को यह ख्याल नही है कि सन 1975 में आपात् काल लगने के बाद माननीय जस्टिस भगवती ने एक मीसाबंदी द्वारा अपने अवैध निरोध (बंदी) के विरूद्ध एक पोस्टकार्ड को हेवियस कार्पस याचिका मानकर सुनवाई करके तत्समय न्यायिक क्षेत्र में वाह वाही लुटी थी। तब उनका यह कदम एक बडा क्रांतिकारी कदम न्यायिक क्षेत्र में माना गया था । कहने का मतलब यह कि जब माननीय उच्चतम न्यायालय के ध्यान में कोई बात लाई जाती है जिसमें प्रथम दृष्टाय कानून का उल्लघन होना प्रतीत होता है या स्वयं उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में कोई जानकारी आती है तो उच्चत्तम न्यायालय ने उस पर हमेषा ही कार्यवाही की है। न्यायिक सक्रियता के नाम पर माननीय उच्चतम न्यायालय ने अनेक ऐसे लेंडमार्क निर्णय दिये है जो सामान्य व परोक्ष रूप से अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कर कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार में आने वाले कार्य दिखते है लेकिन आज नागरिको के हित में होने के कारण व कार्यपालिका तथा विधायिका की अकर्मणता के कारण उन लेंडमार्क निर्णयों पर उंगली नहीं उठाई गई। ऐसे अनेको उदाहरण माननीय उच्चतम न्यायालय के इतिहास से भरे हुए है। लेकिन जस्टिस ए के गांगुली के प्रकरण में जांच समिति ने प्रषिक्षु के आरोपो को प्रथम दृष्टतया तथ्य सही पाये जाने के बावजूद इस आधार पर कि जस्टिस गांगुली घटना के समय उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीष नही थे या प्रषिक्षु सें कोई संबंध उच्च्तम न्यायालय का नहीं था कथित किया गया है इसलिए कोई कार्यवाही नही की जा रही है। यह निष्चित रूप से घोर निराषावादी व माननीय उच्चतम न्यायालय का विसंगति पूर्ण आधार (Contradictory) है। यदि वे दोनों व्यक्ति माननीय उच्चतम न्यायालय से संबंधित नही थे तो उच्चत्तम न्यायालय ने स्व प्रेरणा से कमेटी बनाकर जांच क्यों की? इसका जवाब माननीय न्यायालय ही दे सकता है । इससे तो यह इस बात का संदेष ही जनता के बीच जायेगा कि जब एक न्यायिक साथी पर कोई आरोप पीड़िता द्वारा लगाया जाता है जो कि प्रथम दृष्टाया उच्चतम न्यायालय द्वारा सही भी पाया जाता है तो भी माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा कार्यवाही न करने का निर्देष भेद भाव की दृष्टि से देखा जायेगा और अपने साथी के बचाव में कार्य करना माना जावेगा। वास्तव में जस्टिस गांगूली सेवानिवृत्त न्यायाधीश होने के पहिले वे भारत के एक नागरिक है व एक नागरिक की हैसियत से जब जस्टिस गांगुली दोषी पाये गये है तब माननीय उच्चतम न्यायालय को भारतीय दंड संहिता एवं दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अपने रजिस्ट्रार को उचित कार्यवाही करने के निर्देष देने चाहिए थे।
न्याय व्यवस्था का जनता के प्रति पूर्ण विष्वास बना रहे इसलिये माननीय उच्चत्तम न्यायालय कानून के अंतर्गत आवष्यक कार्यवाही करने के निर्देष देवें बजाय इसके यह जुमला जो हमेषा सुनने को मिलता है कि कानून अपना काम करेगा। न्याय पालिका एक मूक दर्षक के रूप में देखती हुई न दिखे और जनता का न्याय पालिका के प्रति विष्वास पूर्ववत और पूर्णरूप से बना रहे अन्यथा यह एक घटना और उच्चत्तम न्यायालय का उक्त दोहरा तर्क न्यायपालिका पर पडे़ धब्बे को दूर नहीं कर पायेगा।
वास्तव में माननीय उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय न्याय व्यवस्था को हिला देने वाला और उच्चत्तम न्यायालय के प्रति अभी तक पैदा हुये विष्वास में एक प्रष्न चिन्ह अवष्य लगायेगा? क्या यह वही उच्चतम न्यायालय नही है और क्या जनता को यह ख्याल नही है कि सन 1975 में आपात् काल लगने के बाद माननीय जस्टिस भगवती ने एक मीसाबंदी द्वारा अपने अवैध निरोध (बंदी) के विरूद्ध एक पोस्टकार्ड को हेवियस कार्पस याचिका मानकर सुनवाई करके तत्समय न्यायिक क्षेत्र में वाह वाही लुटी थी। तब उनका यह कदम एक बडा क्रांतिकारी कदम न्यायिक क्षेत्र में माना गया था । कहने का मतलब यह कि जब माननीय उच्चतम न्यायालय के ध्यान में कोई बात लाई जाती है जिसमें प्रथम दृष्टाय कानून का उल्लघन होना प्रतीत होता है या स्वयं उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में कोई जानकारी आती है तो उच्चत्तम न्यायालय ने उस पर हमेषा ही कार्यवाही की है। न्यायिक सक्रियता के नाम पर माननीय उच्चतम न्यायालय ने अनेक ऐसे लेंडमार्क निर्णय दिये है जो सामान्य व परोक्ष रूप से अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कर कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार में आने वाले कार्य दिखते है लेकिन आज नागरिको के हित में होने के कारण व कार्यपालिका तथा विधायिका की अकर्मणता के कारण उन लेंडमार्क निर्णयों पर उंगली नहीं उठाई गई। ऐसे अनेको उदाहरण माननीय उच्चतम न्यायालय के इतिहास से भरे हुए है। लेकिन जस्टिस ए के गांगुली के प्रकरण में जांच समिति ने प्रषिक्षु के आरोपो को प्रथम दृष्टतया तथ्य सही पाये जाने के बावजूद इस आधार पर कि जस्टिस गांगुली घटना के समय उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीष नही थे या प्रषिक्षु सें कोई संबंध उच्च्तम न्यायालय का नहीं था कथित किया गया है इसलिए कोई कार्यवाही नही की जा रही है। यह निष्चित रूप से घोर निराषावादी व माननीय उच्चतम न्यायालय का विसंगति पूर्ण आधार (Contradictory) है। यदि वे दोनों व्यक्ति माननीय उच्चतम न्यायालय से संबंधित नही थे तो उच्चत्तम न्यायालय ने स्व प्रेरणा से कमेटी बनाकर जांच क्यों की? इसका जवाब माननीय न्यायालय ही दे सकता है । इससे तो यह इस बात का संदेष ही जनता के बीच जायेगा कि जब एक न्यायिक साथी पर कोई आरोप पीड़िता द्वारा लगाया जाता है जो कि प्रथम दृष्टाया उच्चतम न्यायालय द्वारा सही भी पाया जाता है तो भी माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा कार्यवाही न करने का निर्देष भेद भाव की दृष्टि से देखा जायेगा और अपने साथी के बचाव में कार्य करना माना जावेगा। वास्तव में जस्टिस गांगूली सेवानिवृत्त न्यायाधीश होने के पहिले वे भारत के एक नागरिक है व एक नागरिक की हैसियत से जब जस्टिस गांगुली दोषी पाये गये है तब माननीय उच्चतम न्यायालय को भारतीय दंड संहिता एवं दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अपने रजिस्ट्रार को उचित कार्यवाही करने के निर्देष देने चाहिए थे।
न्याय व्यवस्था का जनता के प्रति पूर्ण विष्वास बना रहे इसलिये माननीय उच्चत्तम न्यायालय कानून के अंतर्गत आवष्यक कार्यवाही करने के निर्देष देवें बजाय इसके यह जुमला जो हमेषा सुनने को मिलता है कि कानून अपना काम करेगा। न्याय पालिका एक मूक दर्षक के रूप में देखती हुई न दिखे और जनता का न्याय पालिका के प्रति विष्वास पूर्ववत और पूर्णरूप से बना रहे अन्यथा यह एक घटना और उच्चत्तम न्यायालय का उक्त दोहरा तर्क न्यायपालिका पर पडे़ धब्बे को दूर नहीं कर पायेगा।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)
काजी तो सठिया गया, कहे उच्चतम सृंग |
अपने बस में अब नहीं, पा'जी गंगू भृंग |
पा'जी गंगू भृंग, कुसुम कलिकाएँ चूसा |
ना आशा ना तेज, नहीं तो भरता भूसा |
रविकर है निरुपाय, अगर दोनों है राजी |
कलिका सुने पुकार, पुकारे जब भी काजी |
काजी तो सठिया गया, कहे उच्चतम सृंग |
अपने बस में अब नहीं, पा'जी गंगू भृंग |
पा'जी गंगू भृंग, कुसुम कलिकाएँ चूसा |
ना आशा ना तेज, नहीं तो भरता भूसा |
रविकर है निरुपाय, अगर दोनों है राजी |
कलिका सुने पुकार, पुकारे जब भी काजी |