कृष्णा बारस्कर:
अभी हाल ही में भारतीय राजनयीक दिव्यानी खोबरागड़े की गिरफ्तारी से अमेरिका और भारतीय कूटनीतिक सम्बंधो में गहरी दारार आ गई। दोंनो ही देशों ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। यह मामला इतना लम्बा खिच रहा है कि अब इसका असर भविष्य की विदेश नीतियों पर भी पड़ने लगा है। जहां अमेरिका इस गिरफ्तारी को कानून सम्मत बताता रहा वहीं भारत इसे अपनी प्रतिष्ठा पर कुठाराघात के रूप में देख रहा है। आज दोंनो ही देशों के बहुत से मसले रूके हुए है, सिर्फ इस एक मामले के कारण। हालाकि ऐसा मामला पहली बार नहीं आया, पहले भी कई बार भारतीय राजनैतिज्ञों को अमेरिका में शर्मिंदा होना पड़ा है। परन्तु उससे दोंनो देशों के कूटनीतिज्ञ सम्बंधों पर कोई असर नहीं पड़ा। इस बार भारत में इस विषय पर पक्ष-विपक्ष, ब्यूरोकेट्स, जनता एकमत है, और सभी देवयानी खोबरागड़े मामलें में अमेरिका को दोशी मानते है। पर क्या यहीं वास्तविकता है? क्या सचमुच में अमेरिका ही दोशी है? क्या भारत की इसमें कोई गलती नहीं है?
मामले के पहलूः
इस मामले का दूसरा पहलू है दिव्यानी की ‘‘घरैलू नौकरानी’’ और मुख्य मुद्दा है ‘‘न्यूनतम वेतन दर’’ जिसे प्रतिष्ठा के फेर मंे हम भूल गये। क्या हमें इस विषय पर भी बहस करने की आवश्यकता नहीं है? आखिर अमेरिका ने ऐसी कौनसी खता करदी जो इतना अधिक हाय तौबा कर दी?
अगर मेरी समझ से मै कहूं तो अमेरिका ने हमारे देश की व्यवस्था का ‘‘स्टिंग ऑपरेशन’’ करके दिखा दिया है। अब जैसा कि हमारे देश में प्रथा चली आ रही है कि जो स्टिंग ऑपरेशन करके किसी प्रभावशाली व्यक्तित्व की पोल खोलता है उसीको दोशी करार दे दिया जाता है। अमेरिका भी ऐसी ही गलती कर बैठा जिसके कारण आज वह हमारी व्यवस्था के अनुसार अपराधी बन गया। दुनिया का सबसे ताकतवर देश यह भूल गया कि हमारे देश में आंतकवाद, कट्टरवाद, शोषण, हत्या, बलात्कार, वसूली जैसे हर अपराध बरदास्त किये जा सकते है। परन्तु यदि कोई हमारे यहां के राजनैतिज्ञ, ब्यूरोक्रेट्स या प्रभावशाली व्यक्तित्व से जुड़ी कोई गुप्त आपराधिक जानकारी को सामने लाता है तो उसे देशद्रोही से भी बदतर हालत में पहुंचा दिया जाता है।
अमेरिका की गलतीः
अमेरिका ने भी यही किया उसने हमारे यहा के उस तबके की आवाज को उठाने का प्रयास किया जिसकी न तो वोट बैंक की राजनीति में गिनती होती है, न अल्पसंख्यक में, न बहुसंख्यक में, न आम आदमीं में और न ही खास आदमीं में। घरेलू कामकाज करने वाली वे महिलायें जो आज भी भारत में 500 से 2000 रूपये में पूरा महीना दूसरे के यहां के झूठे बरतन साफ करती है, झाड़ू-पोछा लगाती है, बचा हुआ जूठा खुद भी खाती है और घर ले जाकर अपने बच्चों को भी खिलाती है। देश के ‘‘खास’’ लोग और ‘‘आम’’ दिखने का नाटक करने वाले लोग कांच के केबिन में बैठकर शायद ये दर्द महशूष भी नहीं कर पायेंगे की किस परिस्थिति से वे अपने परिवार पालती है। ये हम जैसे ‘‘आम’’ लोग समझ सकते है जो इन परिस्थितियों में पले-बढ़े है। ‘‘आम’’ है पर ‘‘आम’’ नहीं रहना चाहते क्यूंकि हम अपनी मॉ-बहनों को 500 रूपये मं काम करते नहीं देखना चाहते। हम किसी का झूठा खाकर इंजिनियर नहीं बनना चाहते, हम खास बनकर आगे बढ़ना चाहते है। हमारे देश में यह हाल सिर्फ घरेलू कामगार महिलाओं का ही नहीं है, यह प्रत्येक क्षेत्र में है, कहीं भी जाकर देख लीजिए। अरे झाड़ू पोछा लगाने वाली मजबूर और गरीब बहनों को छोड़िये हमारे यहां तो 2000-3000 में आपको कप्यूटर इंजीनियर काम करते नजर आ जायेंगे है। अमेरिका की मंशा यदि समझी जाये तो यही है कि किसी मजबूर महीला जो आपका जूठन खाकर भी आपकों साफ-सूथरा जीवन निर्वाह करने में अपनी जी जान लगा देती है। उसे कम मेहनताना देना कानूनन अपराध है। हम तो धन्यवाद देंगे उस देश को जिसनें हम आम लोगो की आवाज उठायी।
अमेरिका विरोध की हकिगतः
जो आम नागरिक अमेरिका का विरोध कर रहे है वे सिर्फ अपने देश के सम्मान की लड़ाई लढ़ रहे है। लेकिन देश का प्रशासन तंत्र सिर्फ देश के सम्मान की लड़ाई लड़ रहा हो ऐसा नहीं लगता चूंकि इससे पहले भी ऐसे मामले सामने आये जैसे देश के पूर्व महामहीम राष्ट्रपति एवं वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम आजाद, महिला डिप्लोमेट मीरा शंकर, पूर्व रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाण्डिस, उ.प्र. के केबिनेट मंत्री आजम खान, एम्बेसडर हरदीप पुरी, पूर्व मंत्री प्रफुल्ल पटेल सहित कई मामले हमारे सामने है। तब देश की कार्यप्रणाली को इतना गुस्सा क्यों नहीं आया? इस बार इतना गुस्सा होने की क्या जरूरत आन पड़ी सरकार इतनी आगबबूला हो गई?
वास्तव में इस बार अमेरिका ने एक साथ हमारे ‘‘सिस्टम की कमियां’’, ‘‘कार्यप्रणाली’’ ‘‘कानून व्यवस्था’’ सहित हमारे ‘‘नीति निर्धारण’’ से आम आदमी का जो शोषण हो रहा है उसका स्टिंग करके दिखा दिया। यही अमेरिका की उसकी सबसे बड़ी गलती नजर आती है। अगर अमेरिका हम पर हमला कर देता तो भी शायद हम उसे माफ कर देते लेकिन हमारे नेताओं की गलती पर उंगली उठाने की जुर्रत कैसे बरदास्त की जा सकती है? कोई बाहर का देश अचानक आकर कैसे हमारे अंदर के ‘‘न्यूनतम वेतन’’ दर की खामी उजागर कर सकता है?
और अंततः
हमारे देश में जहां कानून जनता की भलाई के लिए नहीं बल्कि कार्यपालिका से जुड़े लोगो की अपनी सुविधानुसार बनते है। कभी ‘‘घरेलू हिंसा’’ पर तो कभी ‘‘घरेलू कामगार संरक्षण’’ पर तो कभी ‘‘यौन शोषण’’ कभी ‘‘लोकपाल’’ तो कभी ‘‘जोकपाल’’। सारे कानून सिर्फ दिखाने के लिए बनते है अमल के लिए नहीं। मैंने तो आजतक किसी ‘‘बिल में चुहे को घुसते नहीं देखा’’। कई नेता और ब्यूरोक्रेट्स मेरे आर्टिकल से चिढ़कर मुझे ‘‘न्यूनतम वेतन दर’’ के सर्कुलेशन का कागज दिखायेंगे और कहेंगे कि पूरे देश में आज भी लागू है। मैं कहता हूं कहा लागू है? सिर्फ कागजो पर। जरूरतमंदो के हाथों में तो आज भी ‘‘उम्मीदो और आशाओं का डिब्बा’’ है और नेताओं द्वारा चुनाव में वादों के रूप में दी जाने वाली ‘‘आधी’’ रोटी है। हम देश के सम्मान की आड़ में उस सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर परदा डालने की काशीश कर रहे है जो स्वतंत्रता के बाद से लेकर आज तक सिर्फ संसद में, भाषणों में और कागजों पर नजर आता है, जमीन पर नहीं दिखता।
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