क्या गुणात्मक बदलाव की ओर जा रही है ?
भारत को 'गणतंत्र' हुए चौसठ वर्ष हो गये है। देश ने सफलता की कई उचाँईयो को छुआ है। विभिन्न क्षेत्रों में विकास के कई आयामों पर देश पहुंचा है। हम गौरान्वित हुये है। लेकिन जब हम स्वाधीन भारत के गणतंत्र की बात करते है तो गणतंत्र का हमारा मूल तत्व लोकतंत्र को चलाने वाली नीव ''राजनीति'' की चर्चा जब भी की जाती है तब हम इस देश की दशा को विपरीत दिशा में पाते है। मतलब स्वाधीन भारत की जो गरिमा युक्त राजनीति थी, उसकी तुलना में आज की "राजनीति"इतनी गंदी, सिद्धांतहीन, र्स्वाथपूर्ण, दिशाविहीन व जन-विरोधी हो गयी है कि सामान्य रूप से एक अच्छा नागरिक राजनीति मे आना पसंद ही नही करता है। शायद इसलिए राजनीति की तुलना किसी आलोचक ने किसी समय "वेश्या" से की थी।
''आप'' आम आदमी पार्टी के राजनीति मे आने के बाद देश की राजनीति मे आमूलचूल परिवर्तन आया है। ऐसा सामान्यतया आम नागरिक भी महसूस करता है। लेकिन यह परिवर्तन कितना स्थाई है, यह भविष्य के गर्त मे है। आइये हम उस मूलभूत परिवर्तन की चर्चा कर ले।
स्वाधीनता के बाद से ही भारतीय राजनीति में जो गिरावट खासकर हाल के वर्षो में तेजी से आयी है, उसका मूल कारण सत्ता के प्रति मोह व आर्कषण का बढ़ना है। सत्ता के लिए राजनेता व राजनैतिक दल किसी भी सीमा तक गिरकर राजनीति करने के लिए हमेशा तत्पर रहते है। यह अभी तक का हमारा अनुभव रहा है जो एक कटु सत्य भी है। देश के राजनैतिक तंत्र मंे स्वच्छता लाने के लिये कई बार जे.पी जैसे सफल आंदोलन हुए। उससे तत्काल तंत्र तो बदला लेकिन उस तंत्र को चलाने वाले राजनेता ठीक उसी तरह की राजनीति में घुस गये जिस तरह से पूर्व से राजनीति चली आ रहे थी। अर्थात् सत्ता पर काबिज रहने के लिये वे सिद्धांत विहीन राजनीति में अंदर तक लिप्त होते गये। जनता पार्टी का उदय व समाप्ति इसी राजनीति का परिणाम है। लेकिन अन्ना आंदेलन एक ऐसा पहला सफल आदांेलन रहा जो राजनीति को स्वच्छ करने के लिए एक गैर राजनैतिक आंदेालन था। इसके पूर्व के सभी आंदोलन जयप्रकाश नारायण से लेकर राजनैतिक आंदोलन रहे।
देश के इतिहास में यह शायद पहली बार हुआ कि एक गैर राजनीतिक सफल ऐतिहासिक आंदोलन का नेतृत्व कर रहे अन्ना हजारे (संसद ने सर्वसम्मति से अन्ना से अनुरोध कर उक्त आंदोलन को समाप्त करने के लिये ऐतिहासिक सर्व सम्मत प्रस्ताव पारित किया था) की राय व इच्छा के बिल्कुल विपरीत केजरीवाल ने एक राजनैतिक पार्टी बनाकर एक वर्ष के अंदर ही न केवल एक राज्य देश की राजधानी दिल्ली मे सरकार बना ली, बल्कि 2014 मे होने वाले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद की दौड़ में राहुल गांधी को पीछे छेाडकर नरेन्द्र मोदी के साथ गंभीर दावेदार भी हो गये है।
गैर राजनैतिक आंदेालन होने के बावजूद, अन्ना की इच्छा के विपरीत, आंदोलन से पहली बार एक ऐसी राजनैतिक पार्टी का उदय हुआ जिसने आम आदमी के हक की लडने की बात कही और उसके लिए सिद्धांतो की राजनीति करने का प्रयास किया है।बदले हुए राजनैतिक समीकरण में 'आम' व 'खास' के बीच बहस एक राष्ट्रीय मुद्दा शायद पहली बार बना। पहली बार देश के इतिहास में एक ऐसी सरकार का गठन हुआ है जिसने सरकार गठन करने का दावा ही नही किया बल्कि चुनते ही सर्वप्रथम यह घोषणा की कि वे न तो किसी के समर्थन देगें और न ही समर्थन लेगंे। बिना गठबंधन की एक अल्पमत सरकार का गठन हुआ जिसको समर्थन कांग्रेस ने बिना मांगे (बिना सोचे विचारे नही) दिया जिसके (कांग्रेस) खिलाफ ''आप'' चुनाव मे कूदी थी। यह भी देश की राजनीति मे पहली बार हुआ। पहली बार मुद्दो पर आधारित सरकार के गठन के लिये पक्ष-विपक्ष में अंतर किये बिना समस्त राजनैतिक पार्टीयो से समर्थन की अपील की गई। विधानसभा में मतदान के दौरान विश्वास मत के बदले मुद्दो पर समर्थन की अपील तो की गई लेकिन सरकार बचाने के लिये विश्वास मत देने की अपील नही की गई। यहां तक कि सरकार की सांस जो कांग्रेस के आक्सीजन से चलने के बावजूद मुख्यमंत्री केजरीवाल ने कांग्रेस को धन्यवाद का एक शब्द तक नही कहा। पहली बार देश के राजनैतिक इतिहास मे यह हुआ जिस पार्टी के समर्थन से ही सरकार बनी वह पार्टी सरकार के गठन के तुरंत बाद से लगातार सरकार की आलोचना करते आ रही है। लेकिन आलेाचना को खत्म करने के लिये सरकार से समर्थन वापसी की पहल नही कर रही है जो शायद राजनैतिक रूप से फायदेमंद नही है। शायद यह भी पहली बार हो रहा है कि नवगठित सरकार की आलोचना भी उसके लिये फायदेमंद हो रही है। पहली बार नवगठित सरकार का मुख्यमंत्री आश्चर्यजनक रूप से दृढता से यह कहते हुए सुना गया कि उसे सरकार बचाने की चिन्ता नही है। सरकार गिरती है तो गिर जाये। हम मुददो से समझौता नही करेगे। अल्पमत मंे रहते हुए भी मुख्यमंत्री ने जहां उसे एक विधायक का ही बहुमत प्राप्त हो (अध्यक्ष सामान्यतया वोट नही डालते है) वहां सरकार की स्थायित्व की चिन्ता किये बिना ही अपने एक विधायक को पार्टी से निष्कासन की हिम्मत भी शायद भारतीय राजनीतिक का अजूबा ही कहा जायेगा। केजरीवाल चाहते तो उसे निलंबित कर व्हिप के द्वारा उसे मत देने के लिये विवश भी कर सकते थे। देश की राजनीति का आश्चर्य मिश्रित सुखद परिवर्तन यह भी है कि विधायक बिन्नी का निष्कासन के बावजूद बिन्नी द्वारा आप को मुद्दो पर सरकार को समर्थन देने की घोषणा करना। सरकार बनाने के बावजूद समर्थन देने वाली पार्टी जिसके समर्थन से सरकार टिकी है उसको लगातार चेलेन्ज व आलोचना कर उकसाना व और उसके खिलाफ लगाातार कार्यवाही करने का संदेश देना भी भारतीय राजनीति कीं नई मिशाल है।
'आप' की राजनीति नें एक नई राजनीतिक कवायद भी पैदा की है। जहां दिसम्बर में पांच राज्यो में चुनाव हुये और दो प्रदेश राजस्थान एवं दिल्ली मे सरकारे बदली। लेकिन किसी अन्य सरकार से एक महिने पूरा होने पर उसका लेखा जोखा नही मांगा जा रहा है जैसा कि दिल्ली सरकार जो पांच साल के लिए पास होने के बावजूद उससे एक महिने मे ही अपने पास होने के वजूद को सही सिद्ध करने के लिये पुनःप्रमाण पत्र राजनैतिक दल व मीडिया मांग रहे है। यह राजनीति की वह नई कवायद है जहां आप पार्टी ने आम लोगो के मन में शायद इतना जोश और उत्साह भर दिया है कि वे अन्य पार्टी की तुलना मे आप पार्टी से प्रत्येक दिन का हिसाब लेने को उत्सुक है। शायद उन्हे यह विश्वास है कि 'आप' ही उसकी समस्याओ को हल करने की ईमानदार इच्छा शक्ति रखती है।
'जनमत संग्रह' जो अभी पूर्णतः वैज्ञानिक नही है फिर भी हमारे लोकतंत्र में पहली बार उसे आप द्वारा महत्व दिया जाना भी महत्वपूर्ण राजनैतिक बदलाव को दर्शाता है। आप ने राजनीति में एक और परिवर्तन यह भी लाया कि दोनेा राष्ट्रीय दलो को अपने पीछे चलने क लिये मजबूर कर दिया फिर चाहे "टोपी" का मामला हो 'आदोलन' के तरीके का रास्ता हो, जनता से 'धन संग्रह' करने का मामला हो,'सदस्यता अभियान' का मामला हो, ''लाल बत्ती'' का मामला हो, 'बडे बंगल'े व 'गाडियो' का मामला हो, जनमत द्वारा उम्मीदवारो का चयन का मामला हो, या फिर घोषणा पत्र मे कार्यकर्ताओ की भागीदारी हो इत्यादि।
उपरोक्त उदाहरणेा से यह स्पष्ट है कि अब हमे एक नई भारतीय राजनीति देखने को मिल रही है। लेकिन प्रश्न यही है कि यह संतोषजनक परिवर्तन कितना स्थायी है। क्येाकि केजरीवाल और उनके मंत्री पिछले कुछ समय से जिस प्रकार से 'मै' घमंड के शिकार होकर जो गल्तियंा कर रहे है यदि उनको रोका नही गया व उनको सुधारा नही गया तो हम राजनीति के उस पुराने युग मे वापिस पहुंच जायेगे जैसा कि तेजी से आप को घटते समर्थन से सिद्ध हो रही है।
''आप'' आम आदमी पार्टी के राजनीति मे आने के बाद देश की राजनीति मे आमूलचूल परिवर्तन आया है। ऐसा सामान्यतया आम नागरिक भी महसूस करता है। लेकिन यह परिवर्तन कितना स्थाई है, यह भविष्य के गर्त मे है। आइये हम उस मूलभूत परिवर्तन की चर्चा कर ले।
स्वाधीनता के बाद से ही भारतीय राजनीति में जो गिरावट खासकर हाल के वर्षो में तेजी से आयी है, उसका मूल कारण सत्ता के प्रति मोह व आर्कषण का बढ़ना है। सत्ता के लिए राजनेता व राजनैतिक दल किसी भी सीमा तक गिरकर राजनीति करने के लिए हमेशा तत्पर रहते है। यह अभी तक का हमारा अनुभव रहा है जो एक कटु सत्य भी है। देश के राजनैतिक तंत्र मंे स्वच्छता लाने के लिये कई बार जे.पी जैसे सफल आंदोलन हुए। उससे तत्काल तंत्र तो बदला लेकिन उस तंत्र को चलाने वाले राजनेता ठीक उसी तरह की राजनीति में घुस गये जिस तरह से पूर्व से राजनीति चली आ रहे थी। अर्थात् सत्ता पर काबिज रहने के लिये वे सिद्धांत विहीन राजनीति में अंदर तक लिप्त होते गये। जनता पार्टी का उदय व समाप्ति इसी राजनीति का परिणाम है। लेकिन अन्ना आंदेलन एक ऐसा पहला सफल आदांेलन रहा जो राजनीति को स्वच्छ करने के लिए एक गैर राजनैतिक आंदेालन था। इसके पूर्व के सभी आंदोलन जयप्रकाश नारायण से लेकर राजनैतिक आंदोलन रहे।
देश के इतिहास में यह शायद पहली बार हुआ कि एक गैर राजनीतिक सफल ऐतिहासिक आंदोलन का नेतृत्व कर रहे अन्ना हजारे (संसद ने सर्वसम्मति से अन्ना से अनुरोध कर उक्त आंदोलन को समाप्त करने के लिये ऐतिहासिक सर्व सम्मत प्रस्ताव पारित किया था) की राय व इच्छा के बिल्कुल विपरीत केजरीवाल ने एक राजनैतिक पार्टी बनाकर एक वर्ष के अंदर ही न केवल एक राज्य देश की राजधानी दिल्ली मे सरकार बना ली, बल्कि 2014 मे होने वाले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद की दौड़ में राहुल गांधी को पीछे छेाडकर नरेन्द्र मोदी के साथ गंभीर दावेदार भी हो गये है।
गैर राजनैतिक आंदेालन होने के बावजूद, अन्ना की इच्छा के विपरीत, आंदोलन से पहली बार एक ऐसी राजनैतिक पार्टी का उदय हुआ जिसने आम आदमी के हक की लडने की बात कही और उसके लिए सिद्धांतो की राजनीति करने का प्रयास किया है।बदले हुए राजनैतिक समीकरण में 'आम' व 'खास' के बीच बहस एक राष्ट्रीय मुद्दा शायद पहली बार बना। पहली बार देश के इतिहास में एक ऐसी सरकार का गठन हुआ है जिसने सरकार गठन करने का दावा ही नही किया बल्कि चुनते ही सर्वप्रथम यह घोषणा की कि वे न तो किसी के समर्थन देगें और न ही समर्थन लेगंे। बिना गठबंधन की एक अल्पमत सरकार का गठन हुआ जिसको समर्थन कांग्रेस ने बिना मांगे (बिना सोचे विचारे नही) दिया जिसके (कांग्रेस) खिलाफ ''आप'' चुनाव मे कूदी थी। यह भी देश की राजनीति मे पहली बार हुआ। पहली बार मुद्दो पर आधारित सरकार के गठन के लिये पक्ष-विपक्ष में अंतर किये बिना समस्त राजनैतिक पार्टीयो से समर्थन की अपील की गई। विधानसभा में मतदान के दौरान विश्वास मत के बदले मुद्दो पर समर्थन की अपील तो की गई लेकिन सरकार बचाने के लिये विश्वास मत देने की अपील नही की गई। यहां तक कि सरकार की सांस जो कांग्रेस के आक्सीजन से चलने के बावजूद मुख्यमंत्री केजरीवाल ने कांग्रेस को धन्यवाद का एक शब्द तक नही कहा। पहली बार देश के राजनैतिक इतिहास मे यह हुआ जिस पार्टी के समर्थन से ही सरकार बनी वह पार्टी सरकार के गठन के तुरंत बाद से लगातार सरकार की आलोचना करते आ रही है। लेकिन आलेाचना को खत्म करने के लिये सरकार से समर्थन वापसी की पहल नही कर रही है जो शायद राजनैतिक रूप से फायदेमंद नही है। शायद यह भी पहली बार हो रहा है कि नवगठित सरकार की आलोचना भी उसके लिये फायदेमंद हो रही है। पहली बार नवगठित सरकार का मुख्यमंत्री आश्चर्यजनक रूप से दृढता से यह कहते हुए सुना गया कि उसे सरकार बचाने की चिन्ता नही है। सरकार गिरती है तो गिर जाये। हम मुददो से समझौता नही करेगे। अल्पमत मंे रहते हुए भी मुख्यमंत्री ने जहां उसे एक विधायक का ही बहुमत प्राप्त हो (अध्यक्ष सामान्यतया वोट नही डालते है) वहां सरकार की स्थायित्व की चिन्ता किये बिना ही अपने एक विधायक को पार्टी से निष्कासन की हिम्मत भी शायद भारतीय राजनीतिक का अजूबा ही कहा जायेगा। केजरीवाल चाहते तो उसे निलंबित कर व्हिप के द्वारा उसे मत देने के लिये विवश भी कर सकते थे। देश की राजनीति का आश्चर्य मिश्रित सुखद परिवर्तन यह भी है कि विधायक बिन्नी का निष्कासन के बावजूद बिन्नी द्वारा आप को मुद्दो पर सरकार को समर्थन देने की घोषणा करना। सरकार बनाने के बावजूद समर्थन देने वाली पार्टी जिसके समर्थन से सरकार टिकी है उसको लगातार चेलेन्ज व आलोचना कर उकसाना व और उसके खिलाफ लगाातार कार्यवाही करने का संदेश देना भी भारतीय राजनीति कीं नई मिशाल है।
'आप' की राजनीति नें एक नई राजनीतिक कवायद भी पैदा की है। जहां दिसम्बर में पांच राज्यो में चुनाव हुये और दो प्रदेश राजस्थान एवं दिल्ली मे सरकारे बदली। लेकिन किसी अन्य सरकार से एक महिने पूरा होने पर उसका लेखा जोखा नही मांगा जा रहा है जैसा कि दिल्ली सरकार जो पांच साल के लिए पास होने के बावजूद उससे एक महिने मे ही अपने पास होने के वजूद को सही सिद्ध करने के लिये पुनःप्रमाण पत्र राजनैतिक दल व मीडिया मांग रहे है। यह राजनीति की वह नई कवायद है जहां आप पार्टी ने आम लोगो के मन में शायद इतना जोश और उत्साह भर दिया है कि वे अन्य पार्टी की तुलना मे आप पार्टी से प्रत्येक दिन का हिसाब लेने को उत्सुक है। शायद उन्हे यह विश्वास है कि 'आप' ही उसकी समस्याओ को हल करने की ईमानदार इच्छा शक्ति रखती है।
'जनमत संग्रह' जो अभी पूर्णतः वैज्ञानिक नही है फिर भी हमारे लोकतंत्र में पहली बार उसे आप द्वारा महत्व दिया जाना भी महत्वपूर्ण राजनैतिक बदलाव को दर्शाता है। आप ने राजनीति में एक और परिवर्तन यह भी लाया कि दोनेा राष्ट्रीय दलो को अपने पीछे चलने क लिये मजबूर कर दिया फिर चाहे "टोपी" का मामला हो 'आदोलन' के तरीके का रास्ता हो, जनता से 'धन संग्रह' करने का मामला हो,'सदस्यता अभियान' का मामला हो, ''लाल बत्ती'' का मामला हो, 'बडे बंगल'े व 'गाडियो' का मामला हो, जनमत द्वारा उम्मीदवारो का चयन का मामला हो, या फिर घोषणा पत्र मे कार्यकर्ताओ की भागीदारी हो इत्यादि।
उपरोक्त उदाहरणेा से यह स्पष्ट है कि अब हमे एक नई भारतीय राजनीति देखने को मिल रही है। लेकिन प्रश्न यही है कि यह संतोषजनक परिवर्तन कितना स्थायी है। क्येाकि केजरीवाल और उनके मंत्री पिछले कुछ समय से जिस प्रकार से 'मै' घमंड के शिकार होकर जो गल्तियंा कर रहे है यदि उनको रोका नही गया व उनको सुधारा नही गया तो हम राजनीति के उस पुराने युग मे वापिस पहुंच जायेगे जैसा कि तेजी से आप को घटते समर्थन से सिद्ध हो रही है।
जय हो भारत! मेरा भारत महान!
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)
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