बाबू.....मालीकों की नहीं छोकरी तो नौकरों का नसीब है, आजकल!
कृष्णा बारस्करः
रिस्ते आजकलः
आजकल शादी-विवाह का मौसम चल रहा है, जिधर देखों उधर लोग चाय-नास्ता करते नजर आ जाते है। कहीं गोत्र का वर्ग चूहे से कुत्ते का, तो कही बकरी का सिंह से नहीं मिलता, कहीं गुण-दोष नहीं मिलते, कहीं-कहीं थोड़ी हाईट कम ज्यादा हो जा रहीं है तो कहीं दुबले-पतले का नुक्ता रिस्ता केंसिल कर जा रहा है। परन्तु ये सारे ना-नाकुर तो सिर्फ बहाने है रिस्ता टालने का, असली कारण तो कुछ और ही है।
रिस्ते इस से पहलेः
आपने अपने देश का इतिहास पढ़ा या सुना ही होगा। पुराने जमानें में जब रिस्तें जुड़ते थे तो सबसे पहले ये देखा जाता था कि लड़के के पास कितना खेत है, कितने नौकर काम करते है, कितनी बैल-गाय है, कितनी मुर्गियां और बकरियां है। उसके बाद थोड़ा और जमाना आगे गया तो देखा जाने लगा की इसके पास खुद का घर है कि नहीं, सायकल है कि नहीं और ट्रेक्टर है की नहीं, मोबाईल मेंटेन करता है तो मालदार है।
आपने सन् 1947 से 1985 के आसपास का वो जमाना भी देखा होगा जब आजके सबसे मालदार रेलवे और कोयला, ऊर्जा जैसे विभागों में लोगो को जबरदस्ती पकड़-पकड़कर नौकरियों में लगाया जाता था। लोग सेवाएं छोड़कर भाग जाते थे और सरकार को उनके हाथ-पाव जोड़ना पड़ता था। भागने वाले लोगो का कहना था की जिन्दगी भर कुवारे रहना पड़ेगा, कोई लड़की नहीं बिहायेगा हमसे।
रिस्तों की सौदेबाजीः
आप आज का जमाना भी देख रहे हो जब लड़की देखने जावों तो मेचिंग, पसंद-नापसंद की खानापूर्ती तो होती रहती हैं। परन्तु अगर आप सरकारी नौकर नहीं है तो सबसे पहले ही एक मंशा आपके सामने जाहिर हो जाती है। ‘‘हॉं लड़का अच्छा खासा कमाता खाता तो है परन्तु अगर सरकारी नौकरी होती तो ज्यादा अच्छा होता।’’ जी हां वहीं सरकारी नौकरी जिसे लोग पूछते नहीं थे वह आज समाज में रिस्ते-नातों की नीव बन चली है।
‘‘कभी समय था जब रिस्ते-नाते रूतबा देखकर किये जाते थे, आज समय है जब रिस्तेदारी जेब देखकर की जाती है।’’ अब फर्क नहीं पड़ता की आपके पास कितनी जमीन है कितना बड़ा परिवार है, कितने मेहनती या कितने पैसे वाले है, आपके संस्थान में कितने लोग काम करते है इत्यादि। चाहे आप दिखने में कल्लू-पिल्लू ही क्यों न हो, चाहे आप कितने हीं नसेड़ी हो, बदमास हो, शकल से ही चोर नजर आते हो आते हो, अगर आपकें पास सरकारी नौकरी और खुद के नाम पर घर है, चाहे नौकरी चपरासी की ही क्यों नहीं हो, समाज की खूबसूरत से खूबसूरत, योग्य से योग्य लड़की का रिस्ता आपको मिल जायेगा। "रिस्ते जोड़ते समय लड़का-लड़की की मंशा न तो पहले के जमाने में पूछी जाती थी और न ही आजके जमाने में उन्हे ज्यादा तवज्जो मिलती हैै।" आर्थिक कुण्डली मिली नहीं की पूरा परिवार इमोशनली ब्लेकमेलिंग में लग जाता है।
रिस्ते बेचारेः
इस तरह की सामाजिक सोच ने देश के भविष्य कहलाते युवाओं को अजीब सी घुड़दौड़ में डाल दिया है। उनकी नजर बस पूरा दिन सरकारी वेकेंसी पर ही नजर आती है, वेकेन्सी भरते जाते है, फेल होते जाते है, भरते जाते है-भरते जाते है, अरे भई सारे ही तो टेलेंटेड है, और नौकरियां वैसे ही बहुत कम है। आजकल मैं पूरे दिन युवाओं के बीच रहता हूं, उन्हे देखता हू, बात करता हूं, उन्हे समझने की कोशीष करता हूं। आज सबकी यहीं मंशा है कि बस एक छोटी-मोटी सरकारी नौकरी मिल जाये जिससें कोई अच्छी सा रिस्ता मिल जायेगा, तो बाकी की जिन्दगी चैन से कट जायेगी। यह सोच समाज के लिए फायदेमंद से अधिक घातक नजर आती है क्योंकि वे योग्य युवा जो देश की तकनीकि, और वैज्ञानिकी में अपना बड़ा योगदान दे सकते थे, वे किसी कलेक्टर ऑफिस में बाबूगिरी करते या चपराशी बनकर पानी पिलाते नजर आते है। जो लोग धीरू भाई अम्बानी, रतन टाटा, सत्य नडेला, बिल गेट्स या मार्क जुकरबर्ग बनने की काबिलियत रखते थे वे सिर्फ एक पत्नि के कारण रामू-काका बनकर रह जाते है।
(हालाकी लेखन काफी लम्बा हो रहा है पर कुछ उदाहरण आपके सामने रखना चाहता हूं समय हो तो आगे भी पढ़ लेना।)
उदाहरण 1:-
मेरी कजिन के लिए एक रिस्ता आया था लड़का ‘‘रेलवे’’ में था। दोनों की आर्थिक और सामाजिक कुण्डलियां मिल गई थी। तो परिवार धीरे-धीरे आगे बढ़ते जा रहा था, मुझे प्रोसेस के बारे में ज्यादा पता नहीं है पर एक दिन मैनें बहन से ऐसे ही पूछ लिया कि क्या तुझे लड़का पसंद है? उसने कहां हॉं अच्छा है, उतना गुडलुकिंग तो नहीं पर नेचर बहुत अच्छा है, नौकरी में है, अच्छे परिवार से है और अपने परिवार को पसंद है। चूंकि मैं यूवा हूं और मैं युवाओं के मन की बात समझ भी सकता हूं और उनके दिल की बात कैसे उगलवाना है वो भी मुझे आता है। मैंने पूछ ही लिया की जब तुम उस लड़के से मिली तो क्या तुम्हारे मन में एक छण के लिए भी लगा कि ‘‘हॉं ये वही लड़का है जिसके साथ मैं जिन्दगी बिता सकती हूं।’’ थोड़ा सा ना नुकुर के बाद उसने घुमाफिराकर कह ही दिया की मुझे तो लड़का जमा नहीं। बस बात खतम, जो रिस्ता समझौते के साथ होता है उसका न होना बेहतर है, चूंकि उस रिस्ते के कई बार परिणाम अच्छे नहीं आते।
उदाहरण 2:-
दूसरा उदाहरण है मेरा खास दोस्त है, उसे एक लड़की पसंद है। एक ही समाज से है और दोनों तरफ रिस्ता जमता है। मेरा दोस्त वैसे तो खाते-पीते घर का है और आईटी का विद्यार्थी है। उसमें काबीलियत तो खूब भरी है और हो न हो वो आगे चलकर देश का जाना-माना नाम बनने जा रहा था। पर उसके सफर में वहीं अड़ंगा बीच में आ गया ‘‘विवाह’’! और विवाह में वहीं दिवार आ गई ‘‘सरकारी नौकरी’’। मित्रों जो इन्सान अपने साथ-साथ 10-12 लोगो को रोजगार देने की स्थिति में हो रहा था वो अब वो बहुत जल्द रेलवे में ‘‘सी ग्रेड’’ की नौकरी करने जा रहा है ताकी एक अच्छी लड़की से शादी हो सकें।
और अंत मेंः-
अपने तर्को को शाबित करने के लिए बहुत ज्यादा उदाहरण देने की आवश्यकता तो नही लगती क्योंकि मैंने जो कुछ भी लिखा है। वह सब समाज की घटनाएं है और हम-सबके आसपास घटित होते रहती है। हॉं मैंने मेरा अनुभव नहीं लिखा तो जाते-जाते मैं बता दूं की मैं बचपन से सरकारी नौकरी करने के खिलाफ हूं। हालाकि प्रतियोगी परिक्षाएॅ देने का बहुत शौक हैं, दोस्तो के साथ जाते रहता हूं। घूमने का घूमना भी हो जाता है और दिखाने को भी हो जाता है कि देखों अगर मैं चाहता तो सरकारी नौकर बन भी सकता था।
काफी सारी जगहों पर मेरे रिस्ते की बात चलती रहती है, परन्तु बस यदाकदा वही डॉयलॉग सुनने को मिल जाता है। ‘‘व्यवसाय तो बहुत अच्छा है लड़के का खाता-कमाता है, पर सुना है सरकारी नौकरी करने को मना करता है, अगर सरकारी नौकरी कर लेता तो अच्छा होता। एक डॉयलॉग निकलता है और मेरी तरफ से बात खतम हो जाती है ’’करूंगा न कलेक्टर की नौकरी मिल जायेगी तो ‘‘मालिक से नौकर भी बन जाऊंगा।’’
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27-02-2014 को चर्चा मंच पर दिया गया है
आभार |
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