1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से उत्त्पन्न सहानुभूति की लहर में हुये चुनाव के बाद और स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार कंाग्रेस को छोडकर किसी अन्य एक राजनैतिक दल को (गठबंधन को नही)2014 के आम चुनाव में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ है। 282 सीट पाकर भाजपा को ऐतिहासिक विजय प्राप्त हुई है। इसके लिए यदि किसी एक व्यक्ति को पूर्ण श्रेय दिया जा सकता तो है तो वे नरेन्द्र मोदी ही है जिस कारण वे इतिहास पुरूष बन गये है। जो आत्मविश्वास उन्होने पार्टी के चुनाव प्रचार का मुखिया के रूप में कमान सभालने के पहले दिन से दिखाया व चुनाव परिणाम आने तक जो कथन पर कथन,व ,आकलन चुनाव परिणाम के संबंध में उन्होने किया वह अक्षरशः सही सिद्ध हुआ।
नीतीश कुमार जिन्होने नरेन्द्र मोदी के मुददे पर ही भाजपा से अपना 8 साल पुराना गठबंधन तोडा था, ने इस आम चुनाव में उन्हे मिली भारी असफलता के कारण आने वाले राजनैतिक संकट को भाप कर व्यवहारिक रूप से व्यवहारिक होकर (शायद)मजूबरी मे बेबाकी से अपनी हार को स्वीकार कर अपनी सरकार का इस्तीफा गर्वनर को भेजकर नैतिकता का इतिहास रच दिया। इतिहास इसलिए नही कि नैतिकता को लेकर इस्तीफे इससे पहले नही हुए। लालबहादुर शास्त्री जी का उदाहरण हमारे सामने है तब नैतिकता का मापदंड हमारे राजनैतिक व सामाजिक जीवन में जीवंत था। लेकिन आज के घोर अवसरवादी वातावरण मे ंनैतिकता का कदम उठाना तो दूर नैतिकता की बात करना भी एक आश्चर्यजनक बात मानी जाती है। नीतीश ने ”नैतिकता“ का जो पाठ व दिशा दिखाई वह वर्तमान परिपेक्ष में न केवल अतूलनीय है बल्कि वह नैतिकता के इतिहास में यदि भविष्य में नैतिकता का स्तर हमारे जीवन में नही सुधरता है तो, यह कदम एक मील का पत्थर ही माना जायेगा।
बाद नैतिकता की है तो अरिवंद केजरीवाल का नाम भी स्वभाविक रूप से हमारे सामने आ जा जाता है ।अरविंद केजरीवाल ने जब अपनी सरकार का इस्तीफा दिया था तब उन्होने भी नैतिकता की दुहायी देते हुए अपने इस्तीफे को सही सिद्ध ठहराने का प्रयास किया था। लेकिन केजरीवाल की नैतिकता और नीतीश कुमार की नैतिकता में भारी अंतर है। केजरीवाल विधानसभा में जनलोकपाल बिल के पारित न हो सकने के कारण विधानसभा में सरकारी बिल के असफल हो जाने से बहुमत खो देने के कारण उन्होने नैतिकता के नाम पर इस्तीफा दिया। लेकिन उसी नैतिकता को ताक पर रखकर हार के बावजूद विधानसभा भंग करने की सिफारिश की जिसका नैतिक अधिकार उनकेा नही था। जबकि नीतीश कुमार को इस्तीफा देतेे समय पूर्ण बहुमत प्राप्त था, यद्यपि संकट के बादल के बुलबुले जरूर उठ रहे थे। लेकिन उन्होने राजनेतिक कौशल एवं चातुर्य दिखाते हुए अपनी छवि के अनुरूप जनादेश को अपने विरूद्ध मानते हुए स्वीकार कर नैतिकता के आधार पर न केवल सरकार का इस्तीफा प्रेषित किया बल्कि उसे और उंची नैतिकता देते हुए विधानसभा भंग करने की सिफारिश नही की ( जैसा कि केजरीवाल ने किया था) या जैसा अन्य कोई राजनैतिक करता जिसे उसे करने का नैतिक व कानूनी रूप से अधिकार प्राप्त था क्योकि उस समय तक वे बहुमत प्राप्त सरकार के नेता थे। राजनैतिक चातुर्य दिखाकर राजनीति के शतरंज में नैतिकता का मोहरा चलकर उन्होने भाजपा और नरेन्द्र मोदी के सामने भी नैतिकता का एक बहुत बडा प्रश्न राजनीति में खडा कर दिया है। भविष्य ही यह बता पायेगा कि एक “अर्धसत्य नैतिकता“ का पाठ केजरीवाल ने जो चलाया, अर्द्धसत्य नैतिकता इसलिए कहता हंू कि यदि वे उस समय पद से इस्तीफा नही देते तो ब्रेकिग न्यूज चालू हो जाती कि हारने के बावजूद केजरीवाल ने इस्तीफा न देकर कुर्सी से चिपके रहे। केजरीवाल की इस अर्द्धसत्य नैतिकता को उंचा उठाकर असली नैतिकता का रूप नीतीश कुमार ने विधानसभा भंग की सिफारिश किये बिना इस्तीफा देकर दिया। क्या भाजपा इस नैतिकता की चली मुहिम को और आगे बढाती है या नही यह देखना राजनेतिक विशेलेषको के लिए भी एक दिलचस्प घटना होगी।
बाद नैतिकता की है तो अरिवंद केजरीवाल का नाम भी स्वभाविक रूप से हमारे सामने आ जा जाता है ।अरविंद केजरीवाल ने जब अपनी सरकार का इस्तीफा दिया था तब उन्होने भी नैतिकता की दुहायी देते हुए अपने इस्तीफे को सही सिद्ध ठहराने का प्रयास किया था। लेकिन केजरीवाल की नैतिकता और नीतीश कुमार की नैतिकता में भारी अंतर है। केजरीवाल विधानसभा में जनलोकपाल बिल के पारित न हो सकने के कारण विधानसभा में सरकारी बिल के असफल हो जाने से बहुमत खो देने के कारण उन्होने नैतिकता के नाम पर इस्तीफा दिया। लेकिन उसी नैतिकता को ताक पर रखकर हार के बावजूद विधानसभा भंग करने की सिफारिश की जिसका नैतिक अधिकार उनकेा नही था। जबकि नीतीश कुमार को इस्तीफा देतेे समय पूर्ण बहुमत प्राप्त था, यद्यपि संकट के बादल के बुलबुले जरूर उठ रहे थे। लेकिन उन्होने राजनेतिक कौशल एवं चातुर्य दिखाते हुए अपनी छवि के अनुरूप जनादेश को अपने विरूद्ध मानते हुए स्वीकार कर नैतिकता के आधार पर न केवल सरकार का इस्तीफा प्रेषित किया बल्कि उसे और उंची नैतिकता देते हुए विधानसभा भंग करने की सिफारिश नही की ( जैसा कि केजरीवाल ने किया था) या जैसा अन्य कोई राजनैतिक करता जिसे उसे करने का नैतिक व कानूनी रूप से अधिकार प्राप्त था क्योकि उस समय तक वे बहुमत प्राप्त सरकार के नेता थे। राजनैतिक चातुर्य दिखाकर राजनीति के शतरंज में नैतिकता का मोहरा चलकर उन्होने भाजपा और नरेन्द्र मोदी के सामने भी नैतिकता का एक बहुत बडा प्रश्न राजनीति में खडा कर दिया है। भविष्य ही यह बता पायेगा कि एक “अर्धसत्य नैतिकता“ का पाठ केजरीवाल ने जो चलाया, अर्द्धसत्य नैतिकता इसलिए कहता हंू कि यदि वे उस समय पद से इस्तीफा नही देते तो ब्रेकिग न्यूज चालू हो जाती कि हारने के बावजूद केजरीवाल ने इस्तीफा न देकर कुर्सी से चिपके रहे। केजरीवाल की इस अर्द्धसत्य नैतिकता को उंचा उठाकर असली नैतिकता का रूप नीतीश कुमार ने विधानसभा भंग की सिफारिश किये बिना इस्तीफा देकर दिया। क्या भाजपा इस नैतिकता की चली मुहिम को और आगे बढाती है या नही यह देखना राजनेतिक विशेलेषको के लिए भी एक दिलचस्प घटना होगी।
नैतिकता तब होती जब खुद को खेल से बाहर रखते ... अपना मोहरा बैठाना मतलब उन प्रश्नों से बचना जिनके जवाब जरूरी हैं ...