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क्या भाजपा को दिया गया जनादेश कांग्रेस को “फालोअप” करने के लिए है?

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          राजीव खण्डेलवाल:
रेलमंत्री सदानंद गौडा ने 21 तारीख को यात्री व माल भाडा में बढोतरी की घोषणा की है जो 25 जून से लागू होगी। रेल किराया बढाने के लिए रेलमंत्री का यह कथन कि “मेरे पूर्ववती द्वारा लिये गये इस फैसले को लागू करने के लिए मजबूर हूं”, कहते हुए यह तर्क दिया कि यह निर्णय पिछली सरकार द्वारा निर्णीत था। जब से भाजपा की नई केन्द्रीय सरकार का नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गठन हुआ है तब से लेकर आज तक जो निर्णय मोदी सरकार ने लिये है, वे या तो पूर्ववर्ती सरकार के लिए गये निर्णय को आगे बढाने वाले है, या उनसे हट कर जो निर्णय लिये गये है उनका समर्थन करना आसान नही है।     
सर्वप्रथम डीजल पर जो वृद्धि का निर्णय लिया गया वह पुरानी सरकार के निर्णय के अनुसार ही उसको आगे बढाने वाला निर्णय है। इसके पश्चात यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालो को बदलने का अघोषित राजनैतिक निर्णय लिया गया। वह भी पूर्ववर्ती सरकार को फालेा करने वाला निर्णय था। जिस प्रकार यूपीए सरकार जब सत्ता मे आई थी तब उसने भी एनडीए सरकार द्वारा नियुक्त उपराज्यपालो को बलपूर्वक हटाया था। इसी प्रकार अन्य संवैधानिक संस्थाए एन.एस.डी.सी, राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग इत्यादि में की गई नियुक्तियों के इस्तीफे के मामले में भी वही दबाव की नीतिया है जो पूर्ववर्ती यूपीए गटबंधन सरकार की थी। अब जब रेल यात्रा मे वृद्धि की घोषणा की गई तब भी उनका यही तर्क था। यह सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय नही था। जिसे सरकार बदल नही सकती थी। रेल मत्री का यह तर्क नही था कि उक्त वृद्धि रेल्वे की माली हालत सुधारने के लिए आवश्यक है। इसके साथ ही एक ओर बात के लिए एनडीए सरकार ने  यूपीए सरकार को  फालो किया वह संसद का बजट कालीन सत्र 7 तारीख को प्रारंभ होने जा रहे ( जिसमे रेल बजट 9 तारीख को पेश होना है ) होने के बावजूद  रेल किराये में बढोतरी की घोषणा की फिर यह निर्णय तुरंत लागू न होकर 25 जून से लागू करने का क्या औचित्य है?
पूर्व मंे यूपीए सरकार ने संसद सत्र के प्रारंभ होने के पूर्व जब भी कोई नीतीगत घोषणा की या       अध्यादेश जैसे राईट टू फूड लाया गया तब भाजपा से लेकर समस्त दलो ने इसे संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ मानकर इसकी कडी आलोचना की थी। ईराक के मुददे पर भी यूपीए सरकार अपनी स्पष्ट अलग कडी छाप नही छोड पाई।
यूपीए सरकार की हर नीतियो की चाहे वह आर्थिक नीति हो, मंहगाई हो, रेलवे की नीति हो या विदेश नीतियो सहित समस्त नीतियो की कडी आलोचना करते हुए अच्छे दिन आने वाले है का नारा देकर नरेन्द्र मोदी सिंहासन पर विराजमान हुए। पार्टी विथ डिफरेन्स का नारा लगाने वाली भाजपा पार्टी विथ फालो अप कैसे होते जा रही है यही बात चिंता की है।  बात पाकिस्तान से संबंधो की ही ले ले। यूपीए सरकार पर एक तरफ सैनिक का कटा सिर, दूसरी तरफ टेबल पर बिरयानी को लेकर कटाक्ष करने वाले नरेन्द्र मोदी आखिर पाकिस्तान द्वारा बिना कोई ठोस आश्वासन दिये और सीमा पर स्थिति में गुणात्मक सुधार लाये बिना पाकिस्तान से टेबल पर चर्चा करना विदेश नीति के कौन सा बदलाव को इंगित करता है, प्रश्न यह है?
आखिर प्रथम 30 दिन के भीतर ही वे ही सब यूपीए सरकार की नीतिया जिन्हे पानी पी पी कर कोसा गया। और गलत बताया गया उसको अभी तक फालो करने से उस जनता के बीच क्या संदेश जायेगा जिन्होने बडे भरोसे नई हवा, नई उर्जा, नया वातावरण व नई दिशा के साथ अच्छे दिन आने वाले है के साथ नरेन्द्र मोदी को अपना मत दिया। बात मंहगाई की ही ले ले जिस मुख्य मुददे ने यूपीए सरकार को उखाड फेंका, पर नई सरकार का वही घिसा पिटा तर्क, गले उतरने वाला नही है। आम आदमी जो कुछ घट रहा है उसका तर्क-कारण नही जानना चाहता है,बल्कि वह न घटे न बडे, इसके लिए आवश्यक कठोर कदम का स्वागत करने को तैयार है। लेकिन यहां तो यह कहा जा रहा है कि आम नागरिक ही कडक स्थिति को भुगतने के लिए तैयार रहे।
एनडीए सरकार ने  एक निर्णय यूपीए सरकार से हट कर लिया है, वह यह कि अपनी प्रथम केबिनेट में एक अध्यादेश जारी करने की स्वीकृति प्रदान की जिसके द्वारा उत्तरप्रदेश केडर के आईएएस नृपेन्द्र मिश्रा जो कि ट्राई के पूर्व अध्यक्ष थे उनकी नियुक्ति प्रिसिपल सेकेट्ररी के रूप में की  जा सके । उनकी नियुक्ति मे एक कानूनी अडंगा था कि रिटायरमेन्ट के 2 साल के भीतर उनकी कोई नई नियुक्ति नही की जा सकती थी। क्या केबिनेट की प्रथम बैठक में ऐसा अध्यादेश लाना उचित था । यह कोई अर्जेन्ट मामला नही था, जिसके लिए अध्यादेश लाया जाता।  पहली बात, एक व्यक्ति विशेष की  नियुक्ति के लिए अध्यादेश लाना ही राजनेतिक व लोकतांत्रिक रूप से गलत है,  दूसरा यदि यह अत्यतं आवश्यक था ही, तो भी संसद सत्र की प्रतिक्षा की जा सकती थी,जो लगभग एक महीने में प्रारंभ होने जा रहा था।
यूपीए सरकार का दूसरा संभावित निर्णय योजना आयोग की समाप्ति का ।योजना आयोग का गठन  स्वतंत्र भारत की, प्रथम केन्द्रीय सरकार ने1950 में  किया था जो आज तक अस्तित्व में है। इसके गठन पर या इसकी उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह किसी भी पार्टी ने आज तक नही लगाया। हां यह जरूर है इसमे की गई नियुक्ति उपाध्यक्षो या अन्य सदस्यो पर प्रश्नवाचक चिन्ह समय समय पर अवश्य लगाये गये। यदि  आज एनडीए सरकार इसको समाप्त करने का निर्णय लेती है तो इस निर्णय के औचित्य को भी प्रमाणित करना उनका दायित्व होगा। कुछ अलग करने के दृष्टिमात्र से ही ऐसे निर्णय नही होने चाहिए  जिन पर बहुसंख्यक लोग प्रश्नवाचक चिन्ह उठाते रहे। इसी प्रकार हिन्दी देश की राज भाषा है और  उसका अधिसंख्यक उपयोग पूरे राष्ट्र में किया जाना चाहिए। लेकिन यह स्वयं की कार्यप्रणाली और लोगो कीे सहमति से ही हो सकती है, जबरदस्ती थोप कर नही।  इसके लिए पहला कदम यह उठाया जा सकता है कि केन्द्रीय सरकार अपने समस्त पत्राचार हिन्दी के माध्यम से करे।  प्रधानमंत्री संयुक्त राष्ट्रसंघ से लेकर विभिन्न राष्ट्राअध्यक्षो से हिन्दी मे दुभाषिया के माध्यम से बाते करे।
एक और अलग दिखने वाला निर्णय  मंत्रियो के निज सचिव और निज सहायको की नियुक्ति के संबंध में जारी आदेश से उत्पन्न हुई है जिसके कारण अनावश्यक रूप से मंत्रियो के अधिकारो पर कुठाराघात के आरोप लगे है, जिससे बचना चाहिए था। 
वास्तव मंे अभी तक यह महसूस ही नही हो पाया है कि हम नई सरकार के अधीन शासित है, सिवाए शासक लोगो को। सरकार बदली जरूर है, कुर्सी पर बैठने वाला व्यक्ति भी बदला है,लेकिन सिस्टम वही है। यह उम्मीद की गई थी कि इस कुर्सी पर बैठने वाला व्यक्ति कुर्सी के परिवर्तन के साथ सिस्टम को भी बदल डालेगा, लेकिन फिलहाल जो दिख रहा है वह कुर्सी का वही पुराना चरित्र कि कुर्सी व्यक्ति को अपनी तरह ढाल लेती है। अच्छे भविष्य की शुभकामनाओं के साथ।
     (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)
 
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