‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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‘पी’ ’के’ ‘‘आखिर कौन है? पीके’’

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     लगभग दो महिने के अंतराल के बाद लेख लिख रहा हॅू । इसी बीच मुझे मोबाईल एवं फेसबुक के माध्यम से कहा गया कि मेरे लेख नहीं आ रहे है। कल एक व्यक्ति के फेसबुक के संदेश ने मुझे तुरंत लेख लिखने को प्रेरित किया। जब टी.वी. चेनलों पर ''पी के'' फिल्म पर विवाद को लेकर बहस की जा रही थी तब ही मेरे मन में एक इच्छा उत्पन्न हुई कि ''पी के'' फिल्म को देखकर ही उस पर प्रतिक्रिया -स्वरूप लेख लिखा जाना चाहिए। यद्यपि मेरा फिल्म देखना भी ''पी के'' फिल्म का बहिष्कार करने के निर्देश देने वालो लोगो के लिये उनका विरोध समान माना जा सकता है। लेकिन कई बार कड़वी सच्चाई जानने के लिए कड़वा घ्ूाट भी (यदि है?) पीना पड़ता है।
   फिल्म देखने के पश्चात् यह कहना मुश्किल हो गया है कि वास्तव मे ''पी के''(पिया...पागल..) कौन है? पूरी फिल्म में निर्माता निर्देशक ने प्रभावशाली रूप से अश्लील हुये बिना संकेतो में धर्म गुरूओं की कमियों की ओर इंगित करने का सार्थक प्रयास किया है। इस बात के लिए निर्देशक कीे प्रशंसा की जानी चाहिए कि 'धर्म' पर प्रश्न  उठ़ाते समय फिल्म के नायक  पर भी उन्होने आम लोगो द्वारा दिया गया नाम ''पी. के.'' देकर उसका भी मजाक उड़वाया क्योकि उनके नायक की हरकते या तर्क/कुर्तक  जो कुछ ऐसे थे कि भले ही वे किसी की नजर में सत्यता लिये हुये हो लेकिन इसके   बावजूद आम नागरिको के द्वारा मजाकिया लहजोै में लेने के कारण भी नायक को ''पी के'' नाम फिल्म मे दिया गया। इससे इस बात को बल मिलता है कि जिस आधार पर विभिन्न हिन्दुवादी संगठन द्वारा फिल्म का विरोध किया जा रहा है, उसे भी फिल्म में फिल्मी भीड़ जनता ने भी  मजाक ही माना है। तभी 'पी के' नाम दिया गया व जिसकी परिणीति ''पी के'' नाम में  हुई ,सिवाय अन्त में निर्देशक ने नायिका के पिता को धर्म का 'ड़र' एवं अन्ध विश्वास की सत्यता को स्वीकार कराकर धर्म की सत्यता पर सील लगाने का प्रयास किया है। 
   यहॉ प्रश्न दो उत्पन्न होते है। एक धर्म क्या डर एवं अन्धविश्वास  के कारण टिका हुआ हेै। यदि है तो दूसरा प्रश्न, क्या यह कथित दोष सिर्फ हिन्दू धर्म में ही है। यद्यपि फिल्म में समस्त धर्माे के प्रतीकों को दिखाया जाकर साम्प्रदयिक सद्भाव को कृत्रिम रूप से अहसास कराने का प्रयास किया गया। लेकिन जब धर्म की कमियों को इंगित करने का प्रश्न उत्पन्न हुआ तब निर्माता निर्देशक द्वारा सिर्फ हिन्दू धर्म के डर व अन्ध-विश्वास को ही  हिन्दू धर्म के पूज्य ईष्टों के माध्यम से फिल्म में दर्शाने का प्रयास किया गया। शायद आपत्ति का यही बिन्दु इसी अवस्था को लेकर है जो प्रत्येक हिन्दु  में होनी भी चाहिए। कोई भी हिन्दू कभी यह दावा नहीं करेगा कि हमारा धर्म  या बल्कि यह कहा जाय कि हिन्दू धर्म को चलाने वाले धार्मिक गुरू 'पूर्ण' है, उनमें कुछ भी धर्म  या बल्कि यह कहा जाय कि हिन्दू धर्म को चलाने वाले धार्मिक गुरू 'पूर्ण' है, उनमें कुछ भी कमियॉ नहीं है। यद्यपि ईश्वर पूर्ण है, जिसकी विभिन्न रूपो में हम हिन्दू पूजा करते है । लेकिन सिर्फ हिन्दू गुरूओं की कमी को ही इंगित करना व अन्य धर्म मुस्लिम ,सिख, जैन, ईसाई, बौध धर्म गुरूओ के पूज्य ईष्टो पर कोई प्रश्न न करना उनका सही मायने में हिन्दू धर्म के विरोध को ही प्रकट करता है। निर्माता-निदेशक ने उक्त फिल्म का निर्माण कर उसकी आलोचना करने का एक अवसर सांप्रदायिकता का रंग भरने का भी दे दिया। कुछ अतिवादी हिन्दू धार्मिक संगठन  इस आधार पर फिल्म का विरोध कर सकते है कि फिल्म के नायक आमिर खान के मुसलमान होने के कारण शायद उसके मुिस्लम धर्म पर टिप्पणी नहीं की गई। क्या मुस्लिम धर्म की कटृरता के कारण उसके विरोध होने की कटृरता के डर से व अन्य धर्म के प्रति उॅगली उठाने पर इसकी कड़ी आलोचना होने का डर के कारण निर्माता निर्देशक ने समान रूप से समस्त धर्मो के प्रति उॅगली उठाने का साहस नहीं दिखाया? क्या निर्माता का यह कहना तो नहीं है कि देश में बहुसंख्यक हिन्दूओं का है इसलिए उनके बहुसंख्यक होने के कारण ही बहुसंख्यक समाज पर टिप्पणी की गई है। यदि यही वास्तविक उद्देश्य है तो उन्हे जनता को इससे अवगत कराया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा दिखता नहीं है। यदि वह ऐसा नहीं करते है तो राष्ट्र में बहुसंख्यक हिन्दूवादी होने के बावजूद हमारा राष्ट्र जो धर्म निरपेक्ष है जहंॉ पर प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी धर्म में जीवन जीने का सेैंवेधानिक अधिकार है व प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म की रक्षा करने का भी मौलिक अधिकार है। इसमें धार्मिक ग्रन्थो या धार्मिक गुरूआंे के सम्मान पर यदि अवांछित प्रश्न लगाया जाता है जो इस उद्देश्य के साथ कि हिन्दू धर्म को अन्य धर्मो से नीचे दिखाया जाय तो वह निश्चित् रूप से असहनीय है। वैसे भी हमारा राष्ट्र विकसित राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर होने का प्रयास कर रहा है जिसके लिए वह विभिन्न आंतरिक व अन्तराष्ट्रीय समस्याआंे से जूझ रहा है। वहॉ पर इस तरह के एक पक्षीय धार्मिक मीमान्सा से धार्मिक उन्माद ही पैदा होगा, जो अंततः देश के विकास में बाधक होगा। फिल्म निर्माण करने के साथ देश के विकास मेेे फिल्म निर्माता का भी उतना ही योगदान व कर्तव्य राष्ट्र के प्रति है जितना कि अन्य नागरिको का। उक्त फिल्म का कुछ वर्ग। के द्वारा इस आधार पर समर्थन किया जा रहा है कि  प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर को मानने या न मानने का जन्म सिध्द् अधिकार प्राप्त है। वास्तव में उक्त आधार पर फिल्म या आलोचको ने कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया। प्रश्न मात्र इतना है कि सिर्फ यदि हिन्दूओं के भगवान नहीं है। उनके धर्म गुरू में कुछ कमियॉ है। जैसा कि फिल्म में दर्शाने का प्रयास किया गया है दूसरे धर्माे के बाबत् उक्त संबंध में क्या स्थिति है इस मुद्दे पर फिल्मकार चुप ही रहा जो उसके (दु)आशय का घोत्तक हेैै।    


      अन्त में उपरोक्त समस्त स्थिति के बावजूद हमें अपने अर्न्तमन की ओर देखते हुय अपने धर्म गुरूओं को देखना होगा, यह सोचना होगा कि हम जिन आराध्य भगवान की पूजा करते है नतमस्तक होते  है हमे उनके  व हमारे धर्म ग्रंथो द्वारा निर्देशित उद्देश्यों का हम कितना पालन करते है कितना कर्त्तव्य निभा रहे है, आज की यह घटना हमे यह सोचने पर भी मजबूर करेगी ऐसा मैं मानता हूॅ।लिखते लिखते यह समाचार मिला कि उत्तर प्रदेश सरकार ने 'पी के' फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया है जबकि विभिन्न हिन्दूवादी संगठन एवं समाज के एक वर्ग द्वारा उक्त फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मॉंग की जा रही थी । इससे यह स्पष्ट होते जा रहा हे कि उक्त फिल्म भी राजनीति करते हुए राजनीति का शिकार हो गई है।     
 
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