पिछले कुछ दिनो से ‘‘आप’’ में चली आपसी घमासान और ‘‘महाभारत‘‘ के होते यह परिणाम तो होना ही था। यह ‘परिणाम’ कुछ लोगो के लिए दुश्परिणाम है तो कुछ नेताओ के लिये नेतागिरी चमकाने के लिये सुपरिणाम भी साबित हो सकता है। विश्व के सबसे बडे लोकतंात्रिक देश भारत में लोकतंत्र का अलग तरीके से राग अलापने वाली ‘‘आप’’ पार्टी देश के लोकतांत्रिक नागरिको के समक्ष लोकतंत्र व जनतंत्र का कौन सा आदर्श नमूना पेश करने जा रही है? यह प्रश्न यक्ष प्रश्न से भी बडा होकर भी अंत में दुर्भाग्यवश उक्त घटित घमासान के कारण अस्तित्व हीन हो गया।
पिछले कुछ समय से ‘आप’ में जो कुछ घटित हो रहा है वह ‘आप’ न होकर तू-तडाको से होता हुआ गाली-गलौच, धक्का-मुक्की और हाथापाई में बदल गया व एफ आई आर दर्ज करने की नौबत तक आ गई इस प्रकार ‘‘परस्पर सद्भाव’’ ‘दुर्भाव व वैमैनस्य’ में बदल गया। अलग प्रकार के ‘लोकतंत्र’ व बेहतर वैकल्पिक व्यवस्था का दावा करने वाली ‘‘आप‘‘ की उक्त परिभाषा आप जनता को भी शायद ही भाये। कई चीजे अभी तक जो ‘आप’ में घटी वह शायद राजनैतिक क्षेत्र में पूर्व में अभी तक नहीं हुई है। अभी तक राजनैतिक पार्टियों में दबाव की राजनीति हेतु धमकी इस बात के लिये दी जाती थी कि यदि आप ने हमारी बात नहीं सुनी, हमारी मागें नहीं मानी तो हम पार्टी, से हट जायेंगे, इस्तीफा दे देंगंे। लेकिन ‘आप’ में यह पहली बार हुआ है कि जब किसी व्यक्ति (योगेन्द्र यादव) ने सशर्त इस्तीफा इस शर्त के साथ दिया था कि यदि पार्टी हमारी सब मंागंे मान लेती है तो हमारा वही पत्र इस्तीफा मानकर स्वीकार कर लिया जावे।
इससे यह बात भी सिद्ध होती है कि ‘आप‘ में विभिन्न विचार धारा के लोग आपस में एक साथ किस तरह व किन परिस्थतियो में काम कर रहे थे जिसे तथाकथित लोकतंत्र का मजबूत फेविकोल का जोड भी अंततः एकजुट नहीं रख पाया। आप पार्टी ने प्रेस क्रांफ्रेंस कर यह बतलाया था कि मीटिग के एक दिन पूर्व दोपहर तक योगेन्द्र यादव व प्रशान्त भूषण से समस्त बातो पर सहमति बन गई थी, उनकी समस्त मॉंगें स्वीकार कर ली गई थी (इन्हीं सब बातांे को अरविंद केजरीवाल ने राष्ट्रीय समिति की बैठक को संबोधित करते हुये भी कहा था) संयुक्त माफी का बयान जारी होने वाला था । अर्थात् बात करने से लेकर सहमति बनाने तक आप पार्टी हाईकमान को प्रशान्त भूषण व योगेन्द्र यादव से कोई परहेज या उनसे बातचीत पर कोई आपत्ति नहीं थी, कोई ग्लानि भी नहीं थी । जबकि तब तक उन पर विभिन्न तरह के कई पार्टी विरोधी गंभीर आरोप पार्टी हराने से लेकर भाजपा व कंाग्रेस से मिलने के विषय तक के उन्हीं लोगों द्वारा लगाये गये थे जो बातचीत में शरीक थे, वे आरोप तब तक अप्रभावकारी होकर आपसी बातचीत चलती रही । यदि सफल बातचीत किर्याविन्त हो जाती तो वे दोनांे आदमी जो पार्टी के संस्थापक सदस्य हैं, पार्टी के वरिष्ठतम् सम्माननीय सदस्य कहलाते। लेकिन अब दोनो को विलेन/विभीषण बना दिया गया । सब नैतिकताओं व सिद्धान्तो की सीमा से बाहर जाकर ‘‘पूर्व नियोजित रिमोट द्वारा निर्णित निर्णय’’ को ‘‘लोकतांत्रिक निर्णय’’ का रूप देने का असफल प्रयास किया गया। इन सब में सबसे बडा फायदा देश की स्थापित दोनों सबसे बडी राजनैतिक पार्टियों को भविष्य में होगा।
‘‘सबको देखा हमको परखो’’ के नारे के साथ पार्टी विथ डिफरेंट का नारा लगाने वाली भाजपा को लोगो ने कांग्रेस की तुलना में गले लगाया। अन्ना ‘आदोलन’ से उत्पन्न ‘आप’ पार्टी के ’आम आदमी’ के नारे को शायद गरीबी हटाओ नारे से ज्यादा लुभावना मानकर ‘आम जनता’ ने खूब पंसद कर ‘‘आप‘‘ को बेहतर भविष्य कीे आशा में दिल्ली का सिरमौर बनाया। लेकिन इस घटना ने पार्टी विथ डिफरेंट को पार्टी विथ डिफरेंसेंस ;कपििमतमदबमेद्ध बनाकर विकल्प व सिद्धान्तो की राजनीति करने वाले की ओर देखने वाली जनता को गहरा सदमा पहुॅचाया है । इस घटना से अच्छे विकल्प की राजनीति की आकांक्षा लेकर चलने वाले नागरिको को बडा झटका लगेगा व भविष्य में शायद सैद्धान्तिक वैकल्पिक राजनीति का झण्डा लेकर आगे आने वाले अन्य कोई शख्श पर विष्वास जमाने में जनता को लम्बा समय लगेगा । यही असली नुकसान आज की विघटन की इस प्रक्रिया से हुआ ह,ै जिसकी चिंता या अहसास दोनों पक्षों ने नहीं किया बल्कि इस ‘विष्वास‘ की चिंता दूसरे विष्वास (कुमार) जो कुछ समय पूर्व तक अपने को निर्गुट (निष्पक्ष) बता रहा थे, की आहुति से जला दी गई।
वास्तविक लोकतंत्र ,पारदर्शिता व नैतिक मूल्यो की बार बार दुहाई देने वाले ‘आप’ पार्टी के नेताओं ने अपनी पूरी कार्यवाही को मात्र इस आधार पर सही ठहराने का प्रयास किया कि विशाल लोकतंात्रिक बहुमत से उक्त पूरी कार्यवाही व निर्णय हुआ है। वे यह भूल गए कि अन्ना आदोलन के समय अन्ना सहित इन्ही सब नेताओं ने जनता के विशाल बहुमत से चुने गये सांसदों व बहुमत के संसद के निर्णयो को मानने से यह कहकर इंकार कर दिया था कि रामलीला ग्राउड में यहॉं जो जनता आई है वही असली संसद है, वे नहीं हैं जो संसद भवन में है। अर्थात् तत्समय बहुमत के आकडे़ा के सिद्धान्तो के विपरीत नैतिकता, पारदर्शिता व सिद्धान्तो के मूल्यांे का सहारा लेकर इसे मजबूत करने का आव्हान किया गया। लेकिन अब ‘आप’ की नैतिकता यह हो गई है कि घोर पार्टी विरोधी कार्य करने वाले व्यक्ति को बहुमत के आधार पर राष्ट्रीय कांउसिल से निपटाया तो जाता है लेकिन पार्टी से निकाला नहीं जाता। कोई कारण बताओ सूचना पत्र उन्हंे अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिये नहीं दिया जाता है (लोकतंात्रिक प्रक्रिया?) । बातचीत के दौरान उस आरोपित पार्टी विरोधी व्यक्ति की समस्त 5 मंॅागंे तो मान ली जाती हैं क्योकि वे पार्टी हित मेें हैं, लेकिन फिर भी यह माना जाता है कि वह व्यक्ति पार्टी विरोधी है।
यह भी शायद पहली बार हुआ है कि आप पार्टी जो पूर्व में समस्त पार्टियांे के आंतरिक लोकतंत्र पर प्रहार करते हुये देखी गई, वही आज अन्य पार्टियों के ‘‘सर्वसम्मत निर्णय‘‘ के विपरीत ‘‘बहुमत‘‘ के निर्णय को सबसे बडी लोकतांत्रिक प्रक्रिया बता कर अपनी पीठ थपथपाकर आत्मविभोर हो रही है । यह बहुमत वैसा ही है जैसा कि अन्य दूसरी पार्टियों में सर्वसम्मत (तथाकथित) निर्णय के रूप में होता रहा है। विकल्प की राजनीति करने वालों को यह समझना होगा कि राजनीति में सिघ्दांतों के साथ पूर्ण सही चमतबमचजपवद (परसेप्षन) का होना भी आवष्यक है तभी वह सिध्दान्त सही कहलाता है । तकनीकि रूप से सिध्दान्तों की बात की जाकर चमतबमचजपवद (परसेप्षन) के पूर्ण अभाव में वही तर्क दिये जा रहे है जो अन्य राजनैतिक पार्टीयॉं हमेषा लोकतंत्र के लिये लोकतंत्र की रक्षा में देती चली आ रही हैं । यह वही स्थिति है जैसा कि न्याय के बाबत् कहा जाता है ‘‘न्याय होना ही नहीं चाहिए बल्कि न्याय मिलता हुआ दिखना भी चाहिए’’
एक और नई चीज जो ‘‘आप‘‘ में घटित हुई वह स्टिंग ऑपरेषन जिसके जनक खुद केजरीवाल रहे जिसके द्वारा उन्होने देष की जनता से भ्रष्टाचार को समाप्त करने का आव्हान किया था। वहीं केजरीवाल के साथ किये गये ‘‘स्टिंग ऑपरेषन‘‘ को व्यक्तिगत बातचीत बताकर, तथा सार्वजनिक करने पर नैतिकता का प्रष्न लगाकर, उसे अप्रभावी करने का असफल प्रयास किया गया जो वास्तव में केजरीवाल के लिये भष्मासुर सिध्द हो गया ।
अंत में आधुनिक महाभारत की नई इबारत इसलिये कि महाभारत के धृतराष्ट ईष्वर प्रदत्त दृष्टिहीनता के कारण जो कुछ पाप उनके सामने धटित हो रहा था उसको सुनने व जानने के बावजूद (न देखने की मजबूरी) चुप रहकर मौन स्वीकृति देते रहे, लेकिन केजरीवाल ‘दूर‘ ‘दृष्टि‘ के होने के बावजूद महा धृष्टराज इसलिये कहलायेगें क्योकि सही मायनों में उक्त घटनाओं के पूर्ण पूर्व नियोजित कार्यक्रम के वे स्वयं निर्माता-निर्देषक थे ।
क्या यही ‘‘बदलाव की’’ या ‘‘वैकल्पिक‘‘ राजनीति है घ् शायद यह भविष्य नहीं बतलायेगा जैसे कि अन्य मामले में यह जुमला कहा जाता है, क्योंकि यह वर्तमान के गर्त में समाप्त होकर, अब किसी नये भविष्य की कल्पना करने की लोकतांत्रिक मजबूरी लोकतांत्रिक जनता की होगी ।
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