Rajeeva Khandelwal, Betul:
पंजाब के गुरूदासपुर में हाल में हुई आंतकवादी घटना में पंजाब पुलिस, अर्ध सैनिक बल, व भारतीय सेना ने दीनानगर थाने पर हुये आतंकवादी हमले को सफलतापूर्वक विफल कर दिया। न केवल एक आतंकवादी को मार डाला गया बल्कि दूसरे आतंकवादी नावेद को जिंदा पकडने में भी सफलता प्राप्त की। यद्यपि इसमें एस पी (खुफिया) बलजीत सिंह ,भारतीय पुलिसकर्मी व तीन नागरिक सहित सात लोग भी शहीद हुये। सैनिक-अर्ध सैनिक क्षेत्रो से लेकर सार्वजनिक जीवन के कुछ क्षेत्रो में एक आतंकवादी को जिंदा पकडने पर खुशी भी जाहिर की गई। यह माना गया कि ‘‘आंतकवादी घटनाओं में पाकिस्तान के हाथ लगातार सने हुये है’’ यह सिद्ध करने के सबूतों की कड़ी में नावेद एक महत्वपूर्ण साक्ष्य सिद्ध होगी, यहॉं तक तो बात ठीक लगती है।
यदि सिक्के को पलटकर देखे और तदनुसार भारतीय राजनीति के दूसरे पहलू को देखा जाएॅ तो बहुत से नागरिकों के मन में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से कौंधता है कि क्या आंतकवादी नावेद का जीवित रहना भारतीय लोकतंात्रिक राजनैतिक परिवेश व वर्तमान परिस्थतियो के प्रसंग में उचित है? उसे भी हमले में क्यो नहीं मार डाला गया? देश हित में यह प्रश्न उठना जायज भी है। 22 साल पहले मुंबई में हुये सीरियल बम ब्लास्ट वाले मामले में अभी हाल ही में मात्र एक अपराधी याकूब मेमन को ही फंासी पर लटकाया जा सका व शेष अभियुक्तो की फांसी की सजा को बदल दिया गया। इसके बावजूद भी इस देश के लोकतंत्र के प्रहरी माने जाने वाले देश प्रेमी बुद्धिजीवी वर्ग से लेकर कुछ राजनैतिक पार्टियांे के नेताओं व सार्वजनिक जीवन के सम्माननीय गणमान्य नागरिक गण तथा कला व अन्य क्षेत्रों के कुछ ‘‘कोहिनूरों’’ ने उसकी फंासी केा मानवता व धर्म जाति के आधार जैसे विभिन्न कारणों पर उसे क्षमा प्रदान कर सजा बदलने की अपील उच्चतम् न्यायालय से लेकर राज्यपाल व राष्ट्रपति तक से की थी। उक्त प्रकरण में स्वाधीन भारत के इतिहास में पहली बार फंासी दिये जाने के दो धंटे पूर्व तक देश की सबसे बडी अदालत देश की न्याय प्रक्रिया को अपना कर ‘न्याय’ देने के लिए विशेष रूप से बैठी। अंततः पूर्व में दिये गये निर्णय की ही पुष्टी की गई। इस पर कुछ लोगो ने लोकतंत्र की विचार व बोलने की आजादी की उदारता का अनुचित रूप से फायदा लेते हुये उस ‘न्याय’ को ‘अन्याय’ ठहराने की बेगैरत जुर्रत की।
लोकतंत्र बनने के बाद से लगातार पिछले 68 वर्षो में देश में कानून की स्थिति भी ऐसी बनावटी बनाकर रख दी हैै और हर क्षेत्र एवं स्तर पर भ्रष्टाचार इस कदर व्याप गया है जिसमें (1) न्याय मिलने में अत्यधिक समय लगता है। (2)पहॅुच /पैसे/दंबगई /आतंकवाद वाले आरोपी पर अपराध साबित करना दिन में तारे गिनने जैसा होता है। (3). अपराधी साबित हो जाने के बाद भी (क) विभिन्न न्यायलय/राज्यपाल/राष्ट्रपति आदि के पास पुनः पुनः प्रकरण चलता रहता है (ख) जेल में रहकर भी पसन्द का खाना, पीना ,पहनना तथा वहीं से अपनी पसन्दगी का व्यापार /धन्धा/राजनीति व षड़यंत्र चलाये जा सकते हैं। ऐसे में नावेद जैसे आरोपियो पर अपराध सिद्ध करने तक देश के न्याय तंत्र का समय एवं धन खर्च करना क्या व्यर्थ नहीं होगा?
अन्तर्मन को यह बात कचोटती है कि ‘‘ऐसी राजनीति के चलते करोडो रूपये आतंकवादी के खाने, पीने व सुरक्षा आदि पर खर्च कर सरकार ,न्यायपालिका, और पूरे न्यायिक तंत्र का महत्वपूर्ण समय लगा कर पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया अपना कर ,जब आतंकवादी (नावेद) को फंासी का दण्ड़ सुनाया जायेगा तब फिर पुनः देश के ही तथाकथित बुद्धिजीवी नागरिक मानवता के नाम पर आगे आकर राष्ट्रपति से लेकर उच्चतम् न्यायालय तक से वैसे ही क्षमा माफी की याचना नहीं करेगे जैसा कि मेमन के मामले में उनके द्वारा असफल प्रयास किया गया था, इस बात की क्या कोई ग्यारंटी दे सकता है? लेकिन इन दयावान बुद्विजीवी वीर व्यक्तियो के मन में कमी यह भाव नहीं आया कि वे आतंकवादी तथा अपने देश के विरोधी निर्णीत घोषित अपराधी से भी ‘‘शहीद हुये सैनिको’’ की जिंदगी भी वापस दिलाने के लिए भी अपील करते। कुत्ते की पूॅछ को कितना ही सीधा करने का प्रयास किया जाय वह जस की तस बनी रहती है, कभी भी सीधी नहीं होती है। उसी के समान वर्तमान में भारतीय राजनीति की भी वही गति है। इस लिए युद्ध लडने वाले सैनिको को आगे से सदैव इस बात का कूटनीतिक ध्यान रखना होगा कि किसी भी आतंकवादी घटना में आतंकवादी को मार डालने के बजाय उससे गुप्त जानकारी प्राप्त करने की उम्मीद में यदि वे उसे जिंदा पकडते है तो वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिवेश में निराकरण तक होने वाला न्याय हम भारतीयों के सीने में अपेक्षाकृत ज्यादा कष्ट दायक होगा। खासकर नौजवानो के दिल में , क्योकि बाद में वही कहानी दुहराई जा सकती है। कुछ लोग मेरे विचारो से मत भिन्नता अवश्य रखते होगे ,लेकिन उन सब विचारो का समर्थन करने के बावजूद भारतीय राजनीति की वर्तमान स्थिति को देखते हुए मैं अपने विचारो पर अड़िग हूॅ।
‘‘भले ही सौ अपराधी बच निकलंे परन्तु एक भी निरपराध को सजा न हो’’ ऐसी कानूनी व्याख्या के कारण अपराधी का दोष सिद्ध करना वैसे ही मुश्किल हो जाता है। ऐसी स्थिति में बमुश्किल फंासी की सजा प्राप्त व्यक्ति उपरोक्त परिस्थितियों का लाभ लेकर फंासी की सजा को बदलवा लेगा यह उचित आशंका ही इस लेख की उत्पत्ति का कारक है।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष हैं)
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