दुनिया में सबसे ज्यादा बाघ पालने का शौक दुबई के सुल्तानों में देखा जाता है, वे लोग घर में कुत्तों की जगह शेर, चीता या बाघ पालते है। खैर.... ऐसे महंगे शौक पूरे करने के लिए वे धन-धान्य से परीपूर्ण भी है। परन्तु सब्जी-भाजिंयो और पेट्रोल पर 50 पैसे की वृद्धी पर आंदोलन और दंगे तक हो जाने वाले वाला देश, ऐसे देश ‘भारत‘ में दुनिया की समस्त बाघों की आधी संख्या पलती है।
सुना है भारत में प्रत्येक टाइगर को बचाने में 260 करोड़ रूपये खर्च होते है? और भारत में फिलहाल 2226 टाइगर हैं। इस तरह इतने बाघों को बचाने में लगभग 7 लाख करोड़ खर्च होने का अनुमान है। वहीं मंगलयान को स्पेस में भेजने में मात्र 450 करोड़ रुपए का खर्च आया जो कि 2 टाइगरों तो बचाने में 520 करोड़ खर्च से कम ही हैं। खैर,, ये तो पढ़ी-पढ़ाई और सुनी सुनाई बातें है।
मैं तो ये सोच रहा था कि सिर्फ एक बाघ को बचाने के लिए 260 करोड़? और एक इन्सान को बचाने के लिए? खैर इसे भी जाने दीजिए, ये तो बस मेरी सोच है।
मैनें कंजरवेशनिस्ट्स द्वारा कहा ये कथन भी पढ़े कि- बाघों को बचाने से आर्थिक समझ बेहतर होती है, टाइगर के नेचुरल हैबिटेट्स को बचाने से इकोसिस्टम को फायदा होता है।
अब मैं ये सोच रहा था कि बाघ को बचाने से इकोसिस्टम को कैसे फायदा पहूंचता है? हां मैंने बचपन में पुस्तकों में पढ़ा था कि बाघ प्रकृति में प्राणियों की जनसंख्या संतुलन में सहायक होते है। है भी सहीं बात, शेर जंगलों में प्राणियों को खा-खाकर उनकी जनसंख्या संतुलित करता है।
परन्तु मैं फिरसे यह सोच रहा था कि- आजकल इन्सान भी तो शेर ही बन गया है। ऐसा कौनसा प्राणी या पक्षी है जिसे इन्सान नहीं खाता हो? इन्सान तो वो है कि अगर प्रतिबंध हट जाये तो देश में जीवित पूरे के पूरे 2226 बाघों को भी चट कर जाये। परन्तु करें क्या शेर, हिरण, सुअर, मोर, खरगोश, जितने भी जीव जंगल में जीवित है उन्हे खाने पर प्रतिबंध लगा रखा है सरकार ने, इसलिए इन्सान आजकल ’गाय’ खा रहा है।
मैं फिर सोच पड़ा कि इन्सान ’गाय’ खा रहा है! आश्चर्य! फिर मेरे मन में खयाल आया कि ’गाय’ तो दूध के रूप में अमृत देती है, पंचगव्य देती है, खाद देती है, यही नहीं अपने पूरे जीवनकाल में मानव जाति को कुछ न कुछ देती रहने वाली गाय का मृत शरीर भी धरती को बहुत कुछ वापस करता है। पर शेर क्या देता है? फिर क्यूं गाॅय को खाकर शेर पाल रहे है?
आज देश में किसान धन के अभाव में आत्महत्या कर रहा है, गरीब एक जून की रोटी कमाने के लिए संघर्ष कर रहा है। मध्यम वर्ग आलू-प्याज खरीदने में ही अपना खून पसीना बहा रहा है, और ऐसे में एक ऐसे जानवर जो सिर्फ शान की सवारी है, उस पर आलू-प्याज से कमाया पैसा खर्च करना, फालतु की बरबादी नहीं लगती?
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (17-07-2017) को "खुली किताब" (चर्चा अंक-2669) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हमारे नगर के एक भोजनालय में चार सौ रूपए किलो मनबीक्ता पाया गया
भ्रूण-भक्षी होते हुवे मनुष्य अब नर-भक्षी भी हो गया है.....
हमारे नगर के एक भोजनालय में चार सौ रूपए किलो की दर से बिकता मिला
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Bas Wahi aaina hamne dikhane ki koshish ki hai Neetu jee
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