‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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‘‘बहुमत’’ का निर्णय ‘नैतिक’ रूप से कितना ‘‘बलशाली’’?

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एक साथ ‘‘तीन तलाक’’ के संदर्भ में माननीय उच्चतम् न्यायालय द्वारा दो के विरूद्ध तीन के बहुमत से ऐतहासिक फ़ैसला देकर लम्बे समय से चली आ रही बहस को विराम देते हुए ‘‘त्वरित तीन तलाक’’ को असंवैधानिक करार देने के साथ साथ तुरन्त ही एक अन्य बहस को भी अवसर प्रदान कर दिया हैं। वह इसलिए कि ऐसे महत्वपूर्ण संवेदनशील मुद्दे पर तीन दो के बहुमत का निर्णय संविधान के तहत तो बंधनकारी हैं, जिसने (सिवाए पुर्नावलोकन की स्थिति को छोड़कर) मुद्दे को अंतिम रूप से निर्णीत कर दिया हैं। लेकिन न्यायिक प्रक्रिया में नैतिक बल के आधार पर क्या यह निर्णय उतना ही प्रभावी माना जायेगा? यह निर्णय ऐसा प्रश्न पैदा करने का एक अवसर आलोचको को देता हैं। उच्चतम् न्यायालय ने स्वयं संज्ञान लेकर उक्त मामले की सुनवाई प्रारंभ कर मुस्लिम महिलाओं के बराबरी (समानता) से जीने के संवैधानिक अधिकार पर ‘‘तीन तलाक’’ द्वारा जो अतिक्रमण किया जा रहा था, उस बाधा को समाप्त कर, मुस्लिम महिलाओं को एक बड़ी राहत प्रदान की हैं। उनके असहय जीवन में तनाव को समाप्त कर उनमें नव जीवन का संचार किया हैं। इस ऐतहासिक निर्णय ने एक और विवाद समान सिविल संहिता के संबंध में कानून बनाने का रास्ता भी साफ कर दिया हैं। वैसे भी जब आपराधिक न्यायशास्त्र, मुस्लिम सहित समस्त भारतीयो पर लागू हैं, तब सिविल सहिंता के मामले में मुस्लिम समाज अलग क्यों रखा जाना चाहिए?
लोकतांत्रिक देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया निश्चित रूप से बहुमत के आधार पर संचारित होती हैं। वह बहुमत भी पूर्ण बहुमत न होकर उस प्रक्रिया में भाग लेने वाले व्यक्तियों के बीच का ही होता हैं। अर्थात् ऐसी प्रक्रिया में भाग लेने के लिये अधिकृत रूप से भागीदार होने वाले समस्त पात्र व्यक्तियांे की संख्या का बहुमत गिनने की व्यवस्था हमारी वर्तमान लोकतंात्रिक प्रक्रिया में नहीं हैं। मतलब साफ हैं कि कुल मतो का 50 प्रतिशत से अधिक की संख्या के मत से होने वाले निर्णय को ही बहुमत मानने की व्यवस्था हमारी लोकतंात्रिक प्रक्रिया में नहीं हैं। माननीय उच्चतम् न्यायालय के ऐसे कुछ, बहुत ही संवेदनशील प्रकरणों में भी ऐसी ही प्रक्रिया का लागू होना क्या एक श्रेष्ठ न्यायिक प्रक्रिया/प्रणाली मानी जानी चाहिए? 
कानूनी रूप से संवैधानिक एवं बंधनकारी इस कानूनी व्याख्या को छोड़कर निम्न तीन बिन्दु इस निर्णय को अन्यथा व नैतिक रूप से कमजोर बनाते हैं। एक, ऐसा निर्णय जो समाज विशेष या धर्म विशेष अर्थात् अल्पसंख्यक मुसलमानों के इस्लाम धर्म केे व्यक्तिगत कानून (पर्सनल लॉ) को अक्षुण्ण मानते हुये मात्र आधे अंक से ज्यादा वाले बहुमत के निर्णय के कारण दिया गया हैं। वह नैतिकता के बल के साथ उक्त विवाद को तार्किक रूप से पूर्ण स्पष्टता के साथ अंतिम रूप से निर्णीत कैसे कर पायेगा। आप को मालूम ही है, संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में कोई भी निर्णय सर्व सम्मति से ही लागू होता हैं। पांच सदस्यों में से किसी भी एक सदस्य के वीटो के कारण बहुमत के निर्णय को भी लागू नहीं किया जा सकता हैं। क्या ऐसे ही निर्णय की परिस्थिति इस प्रकार के अल्प लेकिन अतिसंवेदनशील विषयों में उच्चतम् न्यायालय की निर्णय प्रणाली पर भी लागू नहीं किया जाना चाहिए? दूसरा उच्चतम् न्यायालय के उक्त निर्णय में जब स्वयं माननीय न्यायालय ने यह ध्यान रखा कि उक्त मुद्दे की सुनवाई पांच विभिन्न धर्मो के न्यायमूर्तियॉं द्वारा (जिसमें कोई महिला जज शामिल नहीं थी) करें ताकि किसी भी प्रकार की अल्प शंका का भी वातावरण न बन सके। इन बरती गई सावधानियों के बावजूद मुस्लिम धर्मावलम्बी माननीय न्यायमूर्ति ने मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (पर्सनल लॉ) से संबंधित प्रकरण में, ही बहुमत के निर्णय से अपने को अलग रखा, तब क्या यह स्थिति इस निर्णय को और भी कमजोर नहीं कर देती हैें? तीसरा मुख्य न्यायाधीश जो इस बंेच के भी प्रमुख थे, ने भी अपने को बहुमत के निर्णय से अलग रखा हैं। इसी कारण से मैंने इसे ‘‘आधे अंक के बहुमत का निर्णय’’ ऊपर पेरा में लिखा हैं। यह भी पहली बार देखने को मिला व क्या यह उचित हैं कि किसी विशेष धर्म पर्सनल लॉ से जुड़े मामले में उच्चतम् न्यायालय ने विभिन्न धर्मावलम्बीयों के न्यायमूर्तियों की (धर्म के आधार पर?) बेंच बनाई। पूर्व में शाहबानो प्रकरण में भी जिसमें मुस्लिम महिला के गुजारे के अधिकार का मामला था उसमे भी ऐसा नहीं हुआ था जहॉ समस्त न्यायमूर्ति जो विभिन्न धर्मो के नहीं थे और मुस्लिम धर्म के कोई भी न्यायमूर्ति नहीं थे। तब सर्वसम्मति से शाहबानो के पक्ष में निर्णय दिया गया था जिसे बाद में संसद ने कानून बनाकर निष्प्रभावी कर दिया था। 
न्याय का मूल सिद्धांत यह भी हैं कि न केवल न्याय मिलना चाहिए बल्कि न्याय मिलता हुआ महसूस भी होना चाहिए। अर्थात परसेप्शन (अनुभूति) का ‘‘न्याय क्षेत्र’’ में बहुत महत्वपूर्ण स्थान हैं जिसका वर्त्तमान निर्णय में अभाव सा महसूस होता हैं। उपरोक्त सब कारणों से यहॉं यह प्रश्न पैदा होता हैं कि नैतिकता के धरातल पर भी यह निर्णय क्या उतना ही बलशाली माना जायेगा जितना कानूनी आधार पर? ऐसी स्थिति के कारण यह निर्णय मुस्लिम समाज के एक वर्ग को क्या यह अवसर प्रदान नहीं कर देता हैं कि आगे किसी बड़ी बेंच में मामला रेफर किया जाय, जहॉं कम से कम दो तिहाई बहुमत से स्पष्ट निर्णय हो। जब हमारे संविधान में संसद में सामान्य बहुमत न होने पर सरकार गिर जाती हैं लेकिन वह सामान्य बहुमत वाली सरकार जब कोई संविधान संशोधन बिल लाती हैं तो उसे दो तिहाई बहुमत से पारित करना होता हैं। ठीक इसी प्रकार की दो तरह के बहुमत की व्यवस्था न्यायपालिका की उपरोक्त स्थिति में भी क्यो नहीं होनी चाहिए? ऐसी व्यवस्था होने पर ही ऐसे संवेदनशील मुद्दे के निर्णय पर से धुंध की छाया हटकर यर्थाथ स्थिति स्पष्ट हो सकेगी और एक स्पष्ट निर्णय पूरे मुस्लिम कौम को कानून के साथ-साथ पूरे नैतिक बल के साथ मानने के लिये बाध्य होना पडे़गा। अभी अभी आया माननीय उच्चतम् न्यायालय की सात सदस्यीय बेंच का निजता का अधिकार के मामले में आम सहमति का निर्णय उक्त मत की पुष्टि ही करता हैं।
इस निर्णय के बाद माननीय मुख्य न्यायाधीश ने सिंगल बेंच के रूप में अभी तक जो निर्णय दिये हैं वे कितने सही होगंे, यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ सकता हैं, क्योंकि उनके विचार (ओपिनियन) को अन्य तीन न्यायमूर्तियों ने उक्त एक मामले में ही स्वीकार नहीं किया हैं।
 
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