
भारत की राष्ट्र भाषा हिन्दी हैं और संस्कृत भाषा हमारी ‘‘संस्कृति’’ में समायी हुई मूल हैं, तो प्रार्थना हिन्दी-संस्कृत में नहीं होगी, तो क्या इंग्लिश, उर्दू, अरबी, यहूदी इत्यादि अन्य किसी विदेशी भाषा में होगी? क्या अन्य किसी देश का ऐसा उदाहरण हैं जहां राष्ट्र भाषा को छोड़कर दूसरी विदेशी भाषा में सरकारी शिक्षा संस्थाओं में प्रार्थना होती हैं? तो फिर हमारे देश में ही ऐसी उम्मीद क्यों की जाती हैं? शायद इसलिये कि सहष्णुता का असहिष्णु आवरण ओढ़ाने का अनर्गल प्रयास केवल हमारे देश में ही किया जा सकता हैं।
क्या प्रार्थना करने मात्र से बच्चे की धार्मिक स्वतंत्रता खत्म हो जाती है या खत्म हो गई?ं क्या प्रार्थना करने मात्र से नास्तिक बच्चा आस्तिक बन सकता हैं ? क्या प्रार्थना का इतना गहरा प्रभाव हो रहा हैं कि उसके तथाकथित शाब्दिक अर्थो का पालन विद्यार्थी अपने जीवन में कर लेते हैं अथवा उतार लेते हैं? ये सभी मुद्दे याचिकाकर्ता ने उठाये हैं। क्या प्रथम दृष्ट्या उच्चतम न्यायालय को सब समझ नहीं पड़ रहा हैं। कि पी.आई.एल. फाईल करना आज कल क्या एक शगूफा एवं प्रसिद्धी पाने तथा कई बार ब्लैकमैलिंग करने का माध्यम नहीं बनते जा रहा हैं? ऐसे बेतुके उद्देश्यों को लेकर फाईल की जाने वाली याचिका पर अविलम्ब रोक लगाने की आवश्यकता हैं, न कि उसे बढावा देने की। माननीय उच्चतम न्यायालय को इस तरह की पी.एल.आई. को स्वीकार करने के पूर्व इस तथ्य को ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक हैं कि (कम से कम) पीड़ित व्यक्ति या व्यक्ति वर्ग से ही तथाकथित संवैधानिक अधिकारो की सुरक्षा को लागू करवाने के लिए अपनी याचिका लेकर न्यायालय की शरण में आये। यदि नागरिक अपने मूल अधिकारो तथा कर्तव्यों के प्रति जाग्रत नहीं हैं तो न्यायालय का काम उसे जाग्रत करने का नहीं हैं? यह कार्य शासन तथा उससे भी ज्यादा सरकारी-गैरसरकारी संस्थाओं एवं सामाजिक व राजनैतिक दलों का हैं। इसके बावजूद भी यदि वे नागरिक जो उन्हे संविधान द्वारा दिये गये अधिकारो के प्रति जाग्रत नहीं हैं उन्हे तो अपने हाल पर छोड़ देना ही उचित होगा। कहा गया हैं जब तक बच्चा रोयेगा नहीं मां अपने प्राण से भी ज्यादा प्यारे बच्चे को दूध नहीं पिलाती हैं। मुद्दे की बात यह है कि ऐसे विषय पर अविलम्ब एक संयत नीति बनाने की है न कि किसी एक घटना मात्र पर तुरंत कार्यवाही करने की हैं।
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