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संवैधानिक सीमाओं की पुनर्स्थापना: सुप्रीम कोर्ट बनाम कार्यपालिका?

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भारतीय संविधान का मूल ढांचा तीन स्तंभों – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – के बीच स्पष्ट शक्तियों के बंटवारे पर आधारित है। लेकिन हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने की समयसीमा निर्धारित करने वाला निर्णय उस संतुलन को प्रश्नांकित करता है, जो संविधान की आत्मा है।

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया एक ऐतिहासिक निर्णय — जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने की समयसीमा निर्धारित की गई — ने एक बार फिर देश में संवैधानिक संस्थाओं की सीमाओं और शक्तियों को लेकर विमर्श खड़ा कर दिया है। यह निर्णय, जहां एक ओर संघवाद और उत्तरदायित्व की भावना को सुदृढ़ करता है, वहीं दूसरी ओर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की आपत्ति के रूप में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच तनाव को भी उजागर करता है।

इस लेख के माध्यम से हम इस निर्णय की संवैधानिक व्याख्या, इसकी आवश्यकता, तथा उस पर उठे प्रतिरोध के संदर्भ में इसकी समीक्षा करेंगे।

1. राष्ट्रपति – केवल संवैधानिक प्रतीक नहीं, भारतीय संघ का शीर्ष प्रतिनिधि:

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 52 कहता है कि भारत का एक राष्ट्रपति होगा। अनुच्छेद 53 में स्पष्ट किया गया है कि भारत का सम्पूर्ण कार्यपालिका अधिकार राष्ट्रपति में निहित होगा। यह पद केवल एक ‘औपचारिक प्रमुख’ नहीं, बल्कि भारतीय गणराज्य की गरिमा और अखंडता का प्रतिनिधित्व करता है।

  • अनुच्छेद 74 राष्ट्रपति को यह शक्ति देता है कि वह मंत्रिपरिषद की सलाह स्वीकार करें या उसे पुनर्विचार के लिए लौटा सकते हैं।
  • अनुच्छेद 111 और अनुच्छेद 201 में विधेयकों पर राष्ट्रपति की भूमिका को परिभाषित किया गया है, किंतु किसी निश्चित समयसीमा का उल्लेख नहीं है।
  • सुप्रीम कोर्ट द्वारा समयसीमा निर्धारण करना संविधान में वर्णित मौन प्रावधानों की न्यायिक पुनर्लेखन की ओर इशारा करता है।

2. अनुच्छेद 142 का न्यायिक उपयोग – असीमित या सीमित?

  • अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को "पूर्ण न्याय" सुनिश्चित करने की शक्ति देता है। परंतु यह शक्ति अन्य संवैधानिक संस्थाओं की स्वतन्त्रता को बाधित करने के लिए नहीं है।
  • सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि राष्ट्रपति का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन है, संवैधानिक पद की स्वतंत्र गरिमा को कमजोर करता है।
  • भारत का राष्ट्रपति न्यायपालिका का अधीनस्थ नहीं है, और न ही उसे समयसीमा में बांधना अनुच्छेद 142 की मंशा से मेल खाता है।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस आर.वी. रमण ने भी कहा था कि अनुच्छेद 142 का प्रयोग "केवल तभी होना चाहिए जब अन्य संवैधानिक मार्ग विफल हो चुके हों।" यह ‘दंड देने का अधिकार’ नहीं, बल्कि ‘विधि की कमी पूरी करने का माध्यम’ है।


3. विधायिका-कार्यपालिका के बीच न्यायपालिका की घुसपैठ?

भारत के संविधान में शक्तियों का पृथक्करण (Doctrine of Separation of Powers) निहित है। इसका तात्पर्य है कि:
  • विधायिका कानून बनाएगी,
  • कार्यपालिका उसे क्रियान्वित करेगी,
  • और न्यायपालिका उसकी व्याख्या करेगी।

जब न्यायपालिका कार्यपालिका के क्षेत्र में नीति निर्धारण करने लगे, तो यह संविधान के मूल ढांचे के विपरीत है। राष्ट्रपति की भूमिका विधानसभा और संसद के संतुलन का आधार है। यदि उन पर निर्णय की समयसीमा थोप दी जाए, तो यह संविधान प्रदत्त विवेकाधिकार (Discretionary Power) का सीधा उल्लंघन है।


4. क्या राष्ट्रपति की गरिमा खतरे में है?

भारत के राष्ट्रपति न केवल एक संवैधानिक पद हैं, बल्कि राष्ट्रीय अखंडता, निष्पक्षता, और तटस्थता के प्रतीक हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से यह संदेश जाता है कि संवैधानिक प्रमुख को न्यायिक निर्देशों के अधीन माना जा सकता है, जो कि लोकतांत्रिक संतुलन को कमजोर कर सकता है।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का यह कथन कि "कोई संस्था संविधान से ऊपर नहीं है" पूरी तरह सत्य है, लेकिन साथ ही यह भी उतना ही सत्य है कि कोई संस्था दूसरी संस्था के अधिकारक्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकती।


5. संदर्भ और तुलनात्मक दृष्टि:
  • अमेरिका में राष्ट्रपति पर किसी कोर्ट द्वारा कोई समयसीमा नहीं लगाई जाती, चाहे बिल को वीटो करना हो या साइन करना हो।
  • यूनाइटेड किंगडम की संवैधानिक परंपराओं में भी राजा/रानी की भूमिका 'रॉयल एसेंट' तक सीमित है, लेकिन उन्हें कोई न्यायिक निर्देश नहीं दिया जाता।
  • इससे यह सिद्ध होता है कि संवैधानिक प्रमुखों को विधिक प्रक्रिया की मर्यादा में रहते हुए स्वायत्तता दी जाती है


राष्ट्रपति की गरिमा का संरक्षण आवश्यक है!

संविधान का सबसे गरिमामय पद — भारत का राष्ट्रपति — केवल हस्ताक्षरकर्ता नहीं, बल्कि संविधान की आत्मा और राष्ट्रीय प्रतीक हैं। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय उनकी विवेकाधिकार की शक्ति को सीमित करता है, और इससे संवैधानिक संतुलन में असंतुलन उत्पन्न हो सकता है।

लोकतंत्र केवल शक्तियों का बंटवारा नहीं, बल्कि आपसी सम्मान और सीमाओं का पालन भी है। न्यायपालिका को चाहिए कि वह संविधान की रक्षा करे, लेकिन संवैधानिक गरिमा को सीमित कर नहीं

कृष्णा बारस्कर (अधिवक्ता) बैतूल 

 
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